भगवान परशुराम के जन्म की कथा और उनसे जुड़े अन्य अध्याय


संसार के पालनहार श्री हरि विष्णु संसार की रक्षा के लिए वचनबद्ध है । जब- जब पृथ्वी पर धर्म की हानि हुई है तब- तब श्री हरि विष्णु ने पृथ्वी पर अवतार लेकर धर्म की रक्षा की है । त्रेतायुग में भगवान विष्णु ने परशुराम जी के रूप में अवतार लिया था और उन्होंने अधर्मी शक्तियों का नाश करके पृथ्वी पर धर्म की स्थापना की थी ।

Lord Prahsuram
भगवान परशुराम

संसार का कार्य चलाने के लिए परमपिता ब्रह्मदेव ने चार वर्ण  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की स्थापना की थी । सतयुग से त्रेता युग आने तक यह संतुलन अस्थिर हो गया था । ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा प्रदान करना था और वह अपना कार्य बहुत कुशलतापूर्वक कर रहे थे । वहीं दूसरी ओर क्षत्रियों का कार्य शासन करना और समस्त प्रजा की रक्षा करना था, परंतु क्षत्रिय अपने कर्तव्य से विमुख हो गए थे । समाज का रक्षक ही समाज का भक्षक बन गया था । प्रकृति को क्षत्रियों का यह निरंकुश और अमानवीय व्यवहार स्वीकार नहीं था । इसलिए त्रेता युग में संसार के उद्धार के लिए श्री हरि विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम का प्राकट्य हुआ ।

परशुराम जी के जन्म की कथा

Rishi Bhrigu
ऋषि भृगु 

कालांतर में एक महान ऋषि भृगु हुए हैं, जिन्होंने महान ज्योतिष ग्रंथ "भृगुसंहिता" की रचना की थी । उनके पुत्र का नाम ऋचीक था । ऋचीक हर समय तपस्या में लीन रहते थे । महर्षि ऋचीक का विवाह महाराज गाधि की पुत्री सत्यवती   से हुआ था । एक बार पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने यज्ञ किया और उस पवित्र यज्ञ से दो खीर के पात्र प्रकट किए । उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती को खीर के पात्र दिए और कहा , "एक पात्र वे स्वयं ग्रहण कर लें, और दूसरा अपनी मां को खिला दे ।" यह कहकर ऋषि ऋचीक तपस्या के लिए चले गए ।

Devi Satyavati
देवी सत्यवती 

अपनी मां के कहने में आकर सत्यवती ने वह दोनों खीर के पात्र बदल दिए, अर्थात अपना पात्र मां को खिला दिया और मां का पात्र स्वयं ग्रहण कर लिया । जब ऋषि को इस बात का ज्ञान हुआ तो वह सत्यवती पर अत्यंत क्रोधित हुए ।

ऋषि बोले, "मैंने अपनी तपस्या के बल पर तुम्हारे खीर के पात्र में सहनशीलता, धीरज और परमात्मा को प्राप्त करने वाले गुण भरे थे और तुम्हारी माता के पात्र में संपूर्ण ऐश्वर्य, बल, पराक्रम और क्षत्रियोंचित् व्यवहार करने वाले गुणों का समावेश किया था ।" 

"अत: अज्ञानतावश हुई तुम्हारी इस भूल के परिणाम स्वरूप तुम्हारे यहां अत्यंत क्रोधी और कठोर स्वभाव वाले पुत्र का जन्म होगा और तुम्हारी माता के यहां महातपस्वी और क्षत्रियोंचित् स्वभाव वाले पुत्र का जन्म होगा ।" ऋषि की बात सुनकर सत्यवती अत्यंत घबरा गई और बोली," अज्ञानतावश हुई भूल के कारण मैं आपसे क्षमा मांगती हूं, परंतु मैं अत्यंत कठोर स्वभाव वाले पुत्र को जन्म नहीं देना चाहती । अतः आप मुझ पर कृपा कीजिए, और अपनी तपस्या की शक्ति से ऐसा कार्य कीजिए की मेरा पुत्र क्रोधी ना हो भले ही मेरा पौत्र ऐसा हो जाए ।" 

Rishi Richeek
ऋषि ऋचीक

सत्यवती की बात सुनकर ऋषि ऋचीक बोले, मैं पुत्र और पौत्र में कोई भेद नहीं समझता हूं इसलिए तुम एक महातपस्वी पुत्र की माता बनोगी परंतु तुम्हारा पौत्र अत्यंत क्रोधी स्वभाव का होगा । समय आने पर सत्यवती ने ऋषि जमदग्नि को जन्म दिया । 

ऋषि जमदग्नि का स्वभाव अत्यंत कोमल था उन्हें शास्त्र और शस्त्र दोनों का पूर्ण ज्ञान था ।  वे एक महान ऋषि थे । उनका विवाह इक्ष्वाकु वंश के महाराज रेणु की पुत्री रेणुका से संपन्न हुआ था । देवी रेणुका से ऋषि जमदग्नि के पांच पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम थे रुकमवानसुखेनवसुविश्वानस और परशुराम

परशुराम जी का जन्म वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था । यह दिवस अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है । परशुराम जी के बचपन का नाम राम था, महादेव से परशु  प्राप्त करने के उपरांत इनका नाम परशुराम पड़ा ।

Lord Parshuram
परशुराम जी 

रशुराम बचपन से ही बहुत कठोर स्वभाव के थे ।सहस्त्रार्जुन के अत्याचारों का उनके बालक मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा था । उन्होंने अपने पिता से शस्त्र विद्या सिखाने का अनुरोध किया परंतु उनके पिता ने उन्हें मना कर दिया और कहा, ब्राह्मण को केवल शास्त्र पर ही अधिकार है, शस्त्र पर नहीं ।

सहस्त्रार्जुन का परिचय 

King Sahastrajuna
सहस्त्रअर्जुन 

हेहय वंश का सम्राट सहस्त्रार्जुन माहिष्मती नगरी का राजा था। विंध्याचल पर्वत के मध्य में स्थित यह नगरी नर्मदा नदी के किनारे बसी हुई थी ।  इस नगरी को राजा मुचकुंद ने स्थापित किया था । उनका दूसरा नाम माहिष था । सहस्त्रार्जुन के पिता का नाम का नाम कार्तवीर्य था । इसलिए वह कार्तवीर्य  का पुत्र अर्जुन के नाम से जाना जाता था ।

अर्जुन भगवान दत्तात्रेय का परम भक्त था । उसने भगवान दत्तात्रेय की कड़ी तपस्या की और उनसे वर स्वरुप सहस्त्र भुजाओं से युक्त होने का आशीर्वाद प्राप्त किया । सहस्त्र भुजाओं से युक्त होने के कारण ही उसका नाम सहस्त्रार्जुन पड़ा था । वह हर समय यज्ञ आदि सात्विक कर्मों में तत्पर रहता था । उसके बारे में प्रसिद्ध था कि उसके समय में उसके समान यज्ञ और अन्य पुण्य कार्य किसी और राजा ने नहीं किए थे ।

King Sahastrajuna
सम्राट सहस्त्रार्जुन 

भगवान दत्तात्रेय से शक्ति पाकर सहस्त्रार्जुन घमंड से भर गया था । वह स्वयं को पृथ्वी का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति समझता था । उसने अपने आस - पास के कई राज्यों को जीत लिया था । शक्ति के मद में चूर होकर उसने अपने राज्य की सीमाएं बढ़ानी शुरू की और शीघ्र ही पृथ्वी के एक बड़े भाग पर उसका अधिकार हो गया था । 

समस्त संसार को जीतने की कामना से वह बहुत अत्याचारी और निरंकुश हो गया था । उसके राज्य की प्रजा और अन्य ऋषिगण बहुत दुखी रहने लगे थे । उसने अपनी प्रजा पर बहुत से कर लगा दिए थे । उसके राज्य की कोई भी स्त्री सुरक्षित नहीं थी । उसमें कई बार ऋषि जमदग्नि के आश्रम को जलाया और उन्हें स्थान परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया ।

वह समस्त भार्गव ब्राह्मणों का शत्रु बन गया था । लगभग हर समय उसके सैनिक आश्रम में आकर समस्त ऋषिगणों को प्रताड़ित करते रहते थे । इस सब का परशुराम के बालक मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा था ।

महादेव को गुरु के रूप में प्राप्त करना

अपने पिता द्वारा शस्त्र विद्या सिखाने के मना करने पर परशुराम जी को एक योग्य गुरु की तलाश थी । उन्होंने कैलाश की ओर प्रस्थान करने का निश्चय किया । परशुराम जी बहुत कठिन श्रम करके कैलाश पहुंचे । महादेव उनकी सहनशीलता से अत्यंत प्रभावित हुए और उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया ।

Lord Mahadev and Parshuram
महादेव और परशुराम 

शस्त्र विद्या प्राप्त करने के लिए परशुराम जी ने 10 वर्ष तक कठोर परीक्षण किया । उनकी शिक्षा पूर्ण होने पर, पृथ्वी पर धर्म की स्थापना के लिए महादेव  ने उनको एक दिव्य धनुष प्रदान किया । महादेव ने उनको एक कुल्हाड़ी या परशु  दिया और कहा, "यह परशु ही अब तुम्हारी पहचान बनेगा । आज से तुम परशुराम के नाम से जाने जाओगे ।" 

सहस्त्रार्जुन द्वारा रावण को बंदी बनाना 

उधर बल के मद में चूर हुआ सहस्त्रार्जुन  सारी हदें पार कर चुका था । एक बार वह नर्मदा नदी में अपनी दासियों के साथ नौका विहार करते हुए मद्यपान कर रहा था । उस समय नर्मदा नदी में लंकापति रावण भगवान शिव की तपस्या में लीन थे । सहस्त्रार्जुन ने रावण की तपस्या भंग कर दी और उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया ।  क्रोध में आकर रावण ने उन पर प्रहार किया परंतु सहस्त्रार्जुन ने अपने सैनिकों की सहायता से रावण को बंदी बना लिया और कारागार में डाल दिया ।

Sahastrajuna and Ravan
सहस्त्रार्जुन और रावण 

सहस्त्रार्जुन का अत्याचार 

सहस्त्रार्जुन का उत्पात दिनों- दिन बढ़ता ही जा रहा था ।  वह माता रेणुका पर बुरी नीयत रखता । इसलिए यदा-कदा उनके आश्रम में आ जाता और समस्त आश्रमवासियों को अत्यंत प्रताडित करता था । एक दिन सहस्त्रार्जुन ने अपने सैनिकों को ऋषि जमदग्नि  का आश्रम जलाने का आदेश दिया ।

जब उसके सैनिक आश्रम को जलाने लगे तो उसी समय माता रेणुका, सहस्त्रार्जुन को समझाने के लिए उसके महल में चली गई । महल में सहस्त्रार्जुन ने रेणुका के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया । उसने देवी रेणुका पर बल का प्रयोग किया । परंतु देवी रेणुका  ने एक खडग उठा ली और उस पर प्रहार कर दिया ।

देवी रेणुका किसी तरह से सहस्त्रार्जुन के महल से निकलकर आश्रम में पहुंची । उन्हें आश्रम में पहुंचने में थोड़ा विलंब हो गया था । उन्हें देखकर ऋषि जमदग्नि कुपित हो गए, और रोष से भर गए । ऋषि के मन में तरह-तरह के बुरे विचार आने लगे । नियति की प्रबल इच्छा से एक महान ऋषि भी एक आम व्यक्ति की भांति विचार करने लगे ।

ऋषि जमदग्नि  ने अपने चारों पुत्रों को उनकी माता का वध करने की आज्ञा दी । ऋषि पुत्र बोले, "अपनी माता का वध करना एक जघन्य अपराध है, इसलिए वह उनकी आज्ञा का पालन नहीं करेंगे ।" 

परशुराम द्वारा माँ का सर धड़ से अलग करना 

उधर परशुराम  जी अपनी शिक्षा पूर्ण करके ऋषि जमदग्नि के आश्रम में पहुंचे । वह अपने पिता से बहुत स्नेहपूर्वक मिले । ऋषि जमदग्नि ने परशुराम से अपना एक कार्य पूर्ण करने के लिए वचन मांगा । परशुराम जी बोले,"मैं आपको वचन देता हूं, आप जो भी कार्य मुझे करने को कहेंगे, उसे मैं अवश्य पूर्ण करूंगा ।" परशुराम जी आश्रम में अपनी माता से बहुत प्रेमपूर्वक मिले । उसी क्षण उनके पिता जमदग्नि  ने आज्ञा दी की वह अपनी माता का वध कर दे । पिता के मुख से ऐसे वाक्य सुनकर परशुराम जी की आंखों से अश्रुधारा बह निकली ।

Killing of Mother by Parshuram
परशुराम द्वारा माता का वध करना 

वे बहुत असहाय हो गए थे, और अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए, उन्होंने अपने दिव्य परशु से अपनी मां का सर धड़ से अलग कर दिया । अपनी माता की हत्या करने के बाद परशुराम जी अत्यंत विलाप करने लगे ।

परशुराम जी के इस कार्य से उनके पिता ऋषि जमदग्नि अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें वर मांगने को कहा । परशुराम जी बोले, "आप अपनी तपस्या की शक्ति से माता को पुनर्जीवित कर दीजिए ।" ऋषि जमदग्नि ने अपनी तपस्या की शक्ति से देवी रेणुका को पुनः जीवित कर दिया ।  

रावण को मुक्त कराना 

सहस्त्रार्जुन के बंदीगृह में लंकापति रावण बहुत दयनीय जीवन व्यतीत कर रहे थे । वे लगातार महादेव का ध्यान करते और सोचते थे कि अवश्य ही उनसे कोई भारी त्रुटि हो गई है । उन्होंने मन की मन महादेव से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी । महादेव ने परशुराम को दर्शन दिए और उन्हें लंकापति रावण को सहस्त्रार्जुन के बंदीग्रह से मुक्त करनेेे का आदेश दिया ।महादेव की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम जी ने रावण को सहस्त्रार्जुन  के बंदीग्रह से मुक्त किया । 

दिव्य गाय सुशीला का हरण 

परशुराम जी के जीवन का मुख्य उद्देश्य संसार को  सहस्त्रार्जुन के अत्याचारों से मुक्ति दिलाना था । इसके लिए उन्होंने ऋषियों की एक सेना का गठन किया । वह अपने आश्रम से दूर वन में रहकर समस्त ऋषि पुत्रों को शस्त्र विद्या की शिक्षा देते थे ।

एक बार ऋषि वशिष्ठ ने सुशीला नाम की एक दिव्य गाय ऋषि जमदग्नि को भेंट की । सुशीला गाय नंदिनी गाय की पुत्री थी । वशिष्ठ जी के साथ ऋषि प्रियव्रत की पुत्री अनामिका भी थी । अनामिका और सुशीला ऋषि जमदग्नि के आश्रम में ही रहने लगी । जब सहस्त्रार्जुन  को यह ज्ञात हुआ कि जमदग्नि के पास एक दिव्य गाय हैं तो वह उसे लेने के लिए उनके आश्रम में पहुंचा । ऋषि जमदग्नि को घायल करके सहस्त्रार्जुन, सुशीला गाय को लेकर अपने महल में चला गया ।

Sahastrajuna abducting Cow Sushila
सुशीला गाय का अपहरण करते हुए सहस्रार्जुन 

अनामिका ने परशुराम जी को इस घटना के बारे में अवगत कराया, जिसे सुनकर परशुराम जी क्रोध से भर गए और वह सुशीला गाय को लेने के लिए सहस्त्रार्जुन के महल को चल दिए । उन्होंने अपने दिव्य परशु  से सहस्त्रार्जुन के अनेक सैनिकों का वध कर दिया और वह सुशीला को लेकर वापस आश्रम आ गए ।

सहस्त्रार्जुन का अत्याचार 

परशुराम जी के इस कार्य से सहस्त्रार्जुन अत्यंत क्रोधित हो गया परंतु वह परशुराम जी की शक्ति से अत्यंत भयभीत भी था इसलिए उसने परशुराम जी के प्रभाव को कम करने के लिए 21 हेहए वंश के राजाओं को एकत्रित किया और एक बड़ी सेना का गठन किया ।

सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि के आश्रम में जाकर उनकी हत्या कर दी और अनामिका का अपहरण करने का प्रयास किया । उनसे अपने बचने का कोई उपाय ना जानकर अनामिका ने स्वयं का ही वध कर दिया ।

जब परशुराम  जी आश्रम आए तो उनकी माता ने 21 बार अपनी छाती पीट कर उनके सामने विलाप किया । परशुराम जी बोले, जब तक वह 21 बार हेहए वंश के क्षत्रीयों का नाश नहीं कर देंगे तब तक वह चैन से नहीं बैठेंगेे । अत्यंत विलाप करने के कारण उनकी माता की भी मृत्यु हो गई । तब परशुराम जी ने प्रतिज्ञा की, वह हेहए वंश के क्षत्रियों के रक्त का एक कुंड बनाएंगे और उस कुंड के रक्त से अपने माता-पिता का तर्पण करेंगे ।

सहस्त्रार्जुन वध 

परशुराम जी ने सहस्त्रार्जुन  की विशाल सेना को युद्ध की चुनौती दी । उन्होंने अपने दिव्य परशु से सहस्त्रार्जुन  की सहस्त्र भुजाओं को काट दिया और उसका वध कर दिया ।

Lord Parshuram killing Sahastrarjuna's Army
सहस्त्रार्जुन की सेना का संहार करते हुए परशुराम जी 

इसके उपरांत उन्होंने 21 राजाओं का उनकी सेना के सहित एक-एक करके संहार कर दिया । इस प्रकार उन्होंने 21 बार हेहए वंश के क्षत्रिय राजाओं का संहार किया, और उनके रक्त से एक कुंड का निर्माण किया । उस कुंड के रक्त से ही उन्होंने अपने माता-पिता का तर्पण किया ।

Lord Parshuram slaughtering 21 Kshatriyas of Hehaye Dynasty
हेहए वंश के क्षत्रियों का संहार करते परशुराम जी 

जनक को शिव धनुष प्रदान करना 

इसके उपरांत परशुराम जी महादेव के दर्शन करने के लिए कैलाश को गए । महादेव ने उन्हें शस्त्र त्यागने की आज्ञा दी ।  महादेव ने परशुराम से कहा की वह अपना दिव्य धनुष लंकापति रावण को या उनके प्रिय भक्त राजा जनक में से किसी एक को देदे । परशुराम जी ने वह दिव्य धनुष राजा जनक को प्रदान किया ।

महेन्द्रगिरी पर्वत पर वास करना 

समस्त पृथ्वी ऋषि कश्यप को दान करने के उपरांत परशुराम जी महेंद गिरी पर्वत पर तपस्या के लिए चले गए । अनगिनत व्यक्तियों का वध करने के कारण उनके मन में बड़ा भारी बोझ था इसलिए उनका मन तपस्या में नहीं लगता था । वह भगवान दत्तात्रेय की शरण में गए और भगवान दत्तात्रेय ने ही उन्हें परम तत्व का दर्शन कराया ।

Lord Parshuram absorbed in Austerity
तपस्या में लीन परशुराम जी 

परशुराम जी से सम्बन्धित अन्य प्रसंग 

भगवान परशुराम पुनः महेंद्रगिरी पर्वत पर जाकर तपस्या में लीन हो गए । जब भगवान राम ने शिव  का धनुष तोड़ा तो  परशुराम जी राजा जनक की राज्यसभा में गए और उन्होंने वहां भगवान राम के स्वरूप को पहचाना और उन्हें अनेक आशीर्वाद दिए ।

Lord Ram and Lord Parshuram
श्री राम एवं परशुराम 

महाभारत काल में भी परशुराम जी ने भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को शस्त्र विद्या की शिक्षा दी थी । भीष्म पितामह से उनका युद्ध सर्वविदित है, जब देवी अंबा को न्याय दिलाने के लिए उन्होंने भीष्म पितामह से युद्ध किया था । देवताओं ने आकर उनके बीच का यह युद्ध समाप्त करवाया था ।

भगवान परशुराम ने श्रीकृष्ण और बलराम की भी सहायता की थी, और उन्हें करवीरपुर की जगह गोमंतक पर्वत पर जरासंध की अनेक राजाओं से गठित एक बड़ी सेना से युद्ध करने की सलाह दी थी । वहीं पर भगवान परशुराम ने देवताओं की सहायता से भगवान श्रीकृष्ण को उनकी कोमोदकी गदा और सुदर्शनचक्र प्रदान किया था ।

श्री गणेश और परशुराम जी का विवाद 

परशुराम जी के कारण ही श्रीं गणेश एकदंत कहलाते है । कथा है कि एक बार परशुराम जी महादेव के दर्शन के लिए कैलाश गए, उस समय महादेव तपस्या में लीन थे, इसलिए श्री गणेश  ने परशुराम जी को उनसे मिलने से मना कर दिया । तब  गणेश जी और परशुराम जी के मध्य भयानक युद्ध शुरू हो गया । क्रोध में आकर उन्होंने अपने परशु से श्री गणेश पर प्रहार किया । उनके परशु के प्रहार से गणेश जी का एक दांत टूट गया इसलिए गणेश जी एकदंत कहे जाते है । 

Ekdanta Lord Ganesha
एकदंत श्री गणेश 

अपनी माता के वध की आत्मग्लानि से मुक्ति के लिए परशुराम जी ने संपूर्ण आर्याव्रत के तीर्थ स्थानों के दर्शन किए । जब उन्होंने पूर्वी आर्याव्रत के एक दिव्य कुंड में स्नान किया, तो उन्हें अपार शांति का अनुभव हुआ । यह दिव्य कुंड अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में कमलांग रिजर्व वन में स्थित है । यह कुंड परशुराम कुंड के नाम से जाना जाता है । यहा मकर सक्रांति को बहुत बड़ा मेला लगता है ।

Parshuram Kund
परशुराम कुंड 

परशुराम जी को भगवान विष्णु का आवेश अवतार कहा जाता हैं । पुराणों में परशुराम जी के संदर्भ में अनेक प्रसंगों का वर्णन आता है, जिससे स्पष्ट होता है कि वह हर युग में विद्यमान हैं। उनका जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर में स्थित जनपर्व पर्वत माना जाता है । 

Lord Prahsuram temple, Janparv mountain
श्री परशुराम मंदिर, जनपर्व पर्वत 

परशुराम जी अमर हैं । वह आज भी महेन्द्रगिरी पर्वत पर तपस्या में लीन हैं । महेन्द्र पर्वत उड़ीसा राज्य के गजपति जिले के परालाखेमूडी नामक स्थान पर स्थित है ।

Mahendragiri Mountain
महेंद्रगिरि पर्वत
                                            
  ।। इति श्रीं ।। 

कथा 👇


Image Sources:

mythgyaan.com 

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