जड़ भरत की कथा तथा जीवन की वास्तविकता

जड़ भरत की कथा

मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य अविनाशी परमात्मा को प्राप्त करना है परंतु काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह के अधीन होकर मनुष्य अपने परम लक्ष्य से भटक जाता है और अनेक बार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त करता है ।

पवित्र ग्रंथ श्रीमद् भागवत के पंचम स्कंध के सातवे अध्याय में श्री हरि विष्णु के अनन्य भक्त भरत जी की कथा का वर्णन है, वह मोक्ष के अधिकारी होते हुए भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में एक हिरण के मोह में फंस कर उसमें अपना चित्त लगा बैठे जिसके फलस्वरूप उन्होने अपने अगले जन्म में हिरण की योनि को प्राप्त किया ।

हिरण के रूप मे रहते हुए परमात्मा के प्रति स्मृतियाँ बने रहने के कारण उन्होंने अगले जन्म में फिर मनुष्य का शरीर प्राप्त किया और जड़ भरत के नाम से प्रसिद्ध हुए और उसी जन्म में उन्होंने श्री हरि के श्री चरणों में ध्यान लगा कर मोक्ष प्राप्त किया ।

भरत जी का परिचय

प्राचीन काल में एक महान और दूरदर्शी राजा प्रियव्रत राज करते थे । उनके पुत्र का नाम आग्निध्र था । वह अपने पिता के समान महान शासक थे । महाराज आग्निध्र के पुत्र का नाम नाभि था । वह भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे ।

भगवान विष्णु
भगवान विष्णु 

महाराज नाभि के यज्ञ से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान विष्णु ने  उनके यहां भगवान ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया था । भरत महाराज ऋषभदेव के जेष्ठ पुत्र थे । वह अपने पिता के समान विलक्षण गुणों से युक्त थे । उनकी माता का नाम देवी सुमंगला था ।

भरत जी का बचपन अपने पिता के सानिध्य में बीता ।  वे अपने पिता के समान ही भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे । वह बहुत ही विनम्र स्वभाव के थे और अपनी प्रजा की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते थे ।

भरत जी का विवाह राजा विश्वरूप की कन्या पंचगनी से हुआ था । देवी पंचगनी ने उनकी पांच संतानों को जन्म दिया । भगवान ऋषभदेव ने भरत को राज कार्य के योग्य जानकर उनका राज्य अभिषेक कर दिया और वन मे प्रभु की भक्ति के लिए चले गए ।

राजा भरत
राजा भरत 

महाराज भरत एक योग्य शासक थे । उन्होंने अपने प्रजा के हित के लिए अनेक कार्य किए । उन्होंने अनेक यज्ञ किए थे और यज्ञ का सम्पूर्ण फल श्री हरि के चरणों में अर्पित कर दिया था । उनकी प्रजा उनसे अत्याधिक संतुष्ट थी ।

महाराज भरत का वन गमन 

राजा भरत के पांचों पुत्र उनही के समान शील स्वभाव के थे । समय आने पर महाराज भरत ने अपना राज्य पांच भागों में विभाजित कर अपने पुत्रों को दे दिया और वन में श्री हरि की भक्ति के लिए चले गए ।

तपस्या के लिए उन्होंने हरिहर क्षेत्र को चुना जो चक्र (गंडकी) नदी के समीप बसा एक तपोभूमि था । उस क्षेत्र के एकांत स्थान मे महाराज भरत श्री हरि का ध्यान किया करते थे । उन्होंने अपने मन से सभी मोह और वासनाओं को त्याग दिया था । वे नित्य अपने मन मे श्री हरि के दिव्य स्वरूप का दर्शन किया करते थे ।

श्री हरि की भक्ति मे लीन राजर्षि भरत
श्री हरि की भक्ति मे लीन राजर्षि भरत 

राजर्षि भरत का हिरण के मोह मे पड़ना 

एक दिन गंडकी नदी के किनारे राजर्षि भरत श्री हरि की उपासना मे लीन थे, तभी एक गर्भवती हिरनी एक सिंह से बचते हुए वहां आई, वह इतनी व्याकुल थी की सिंह की दहाड़ से उसका गर्भ वही नदी मे गिर गया और वह अपने प्राण बचाने के लिए वहां से भाग गई ।

हिरण के शावक की रक्षा करते हुए भरत जी
हिरण के शावक की रक्षा करते हुए भरत जी 

राजर्षि भरत ने उस हिरनी के शावक की रक्षा की और उसे अपने पास रख लिया । वे उसका लालन- पालन करने लगे । धीरे-धीरे उस शावक से उनका मोह बढ़ने लगा, वे सदैव उसके साथ रहने लगे और अन्य जंगली जानवरों से उसकी रक्षा करने लगे । उस शावक से उनका मोह इतना बढ़ गया की हर समय उन्हें उसकी चिंता लगी रहती । 

हिरण के मोह मे राजर्षि भरत
हिरण के मोह मे राजर्षि भरत 

राजर्षि भरत के नित्य कर्म छूटते जा रहे थे । वे प्रभु का चिंतन ना कर केवल उस शावक के बारे मे सोचते रहते थे । भरत जी का अंत समय नजदीक आने पर भी उनका मन उस शावक मे लगा रहा । राजर्षि भरत ने साधरण मनुष्यों की भाँति हिरण के शावक की चिंता करते हुए अपना शरीर त्याग दिया ।

अंत समय मे भी हिरण का चिंतन करते हुए भरत 

मृत्यु के समय राजर्षि भरत का मन हिरण मे लगे रहने के कारण हरिहर क्षेत्र मे ही उन्हें अगले जन्म मे हिरण की योनि प्राप्त हुई परंतु पूर्व जन्म की स्मृतियाँ उनके साथ बनी रही ।

राजर्षि भरत इस जन्म में अत्यंत पश्चाताप करते थे और सोचते थे कि व्यर्थ ही हिरण के मोह में पड़कर उन्होंने मोक्ष प्राप्ति का अवसर खो दिया । वह हिरणों के झुंड से अलग रहते थे और मन ही मन प्रभु का सिमरन करते रहते थे । उन्होंने गंडकी नदी के तट पर पुलह ऋषि के आश्रम के समीप अपना निवास स्थान बना लिया । हिरण के रूप में वह ऋषि-मुनियों की गतिविधियां देखते रहते हैं और श्री्हरि का सिमरन करते रहते ।

धीरे-धीरे समय बीतता गया और कुछ वर्ष के पश्चात गंडकी नदी के तट पर ही उस हिरण ने अपने प्राण त्याग दिए । हिरण के रूप में जिस समय भरत जी ने अपना शरीर त्यागा उस समय वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल के बारे में सोच रहे थे इसलिए उन्होंने अंगिरस गोत्र के ब्राह्मण के पुत्र के रूप में जन्म लिया । उनके पिता ने उनका नाम भरत रखा ।

भरत जी का ब्राह्मण कुल मे जन्म 

उनके पूर्व जन्मों की स्मृतियां उनके साथ बनी हुई थी इसलिए वह एकांत में रहकर श्री हरि के चरणों का ध्यान लगाया करते थे । आसक्तियों से उन्हें भय हो गया था इसलिए वह अकेले ही रहते थे । उनके पिता ने उन्हें वेद अध्यन कराने के अनेक प्रयास किए परन्तु उनका मन उनमे नहीं लगता था । लोग उन्हें जड़ बुद्धि और मुर्ख समझते थे पर इस बात का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था । धीरे-धीरे वह जड़ भरत के नाम से विख्यात हो गए ।

माँ काली का आशीर्वाद पाना 

एक बार जड़ भरत को उनके भाइयों ने खेतों की रखवाली मे लगा दिया, उनको अकेला पाकर कुछ दस्युओं ने उनका अपहरण कर लिया और उन्हें काली मंदिर मे ले आए ।  वे दस्यु देवी काली को उनकी बलि देना चाहते थे ।

देवी काली
देवी काली 

देवी काली को एक ब्रह्मज्ञानी की बलि स्वीकार्य नहीं थी इसलिए ज्यों ही एक दस्यु ने जड़ भरत का वध करने के लिए खडग उठाया उसी समय देवी काली वहां प्रकट हो गई और क्रोध मे आकर उन्होंने सभी दस्युओं का वध कर दिया । देवी काली, जड़ भरत को अनेक आशिर्वाद देकर वहा से अन्तर्ध्यान हो गई ।

राजा रहुगण को आत्मज्ञान देना 

एक बार सिंधु नरेश रहुगण आत्मज्ञान प्राप्त करने कपिल मुनि के दर्शन को जा रहे थे । वे एक पालकी मे बैठे हुए थे और चार कहार वह पालकी उठा कर चल रहे थे । अचानक एक कहार की तबीयत खराब हो गई और उसे पालकी उठाने मे काफी तकलीफ हो रहीं थी । कहारों ने खेतों मे बैठे हुए जड़ भरत को देखा और उन्हें पालकी उठाने को कहां ।

 भरत जी ने कहारों के साथ मिल कर पालकी उठा ली परंतु उनका पैर पृथ्वी पर चल रही चीटियों पर ना पड़े इसलिए वह संभल कर चल रहे थे और कहारों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे । उनके धीरे - धीरे चलने से कहारों और राजा रहुगण ने उनको अत्यंत अपशब्द कहे । परंतु उन्होंने इन सब बातों पर ध्यान नहीं दिया और उसी प्रकार चलते रहे ।

पालकी को उठाए हुए जड़ भरत और कहार 

भरत जी के धीरे चलने से राजा रहुगण पालकी मे से बोले की देखने मे तो तुम मोटे और हट्टे- कट्टे दिखाई देते हो पर पालकी का भार तुम नहीं उठा सकते । मैं तुम्हें अभी इसका दंड देता हूं ।भरत जी बोले, मैं मोटा और हट्टा कट्टा नहीं हूं और कर्मों के अनुसार मैंने जो यह शरीर प्राप्त किया है यह मोटा और हट्टा कट्टा है । वस्तुत, आप में और मुझ में कोई भेद नहीं है । आप, मैं और यहां उपस्थित ज़न उस परमात्मा का अंश रूप आत्मा ही है ।

अतः हम सब एक समान है । हम सब सत, रज और तम गुणों के अधीन होकर कार्य करते हैं और एक परमात्मा का अंश होने के उपरांत भी अपने किए गए कर्मों का फल भोगने के लिए भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं । जड़ भरत जी के मुख से यह वचन सुनकर राजा रहुगण पालकी से उतर गए और उन्होंने भरत जी के चरण पकड़ लिए । भरत जी ने उनको आत्मा और परमात्मा से संबंधित अनेक उपदेश दिए और उनकी जिज्ञासा को शांत किया । 

राजा रहुगण जड़ भरत को प्रार्थना करते हुए
राजा रहुगण जड़ भरत को प्रार्थना करते हुए 

जड़ भरत द्वारा राजा रहुगण के संशय का निवारण करना 

जड़ भरत ने राजा रहुगण के संशय के निवारण के लिए कुछ उदाहरण भी दिए । भरत जी बोले हे राजन, एक व्यापारी व्यापार करने दूसरे देश में जाता है । उसके पास व्यापार करने के लिए उसके द्वारा कमाया हुआ बहुत सा धन होता है । जब वह एक वन से निकलता है तो उसके पीछे छह चोर पड़ जाते हैं और उसका सारा धन लूट लेते हैं । 

भरत जी राजा रहुगण को व्यापारी का दृष्टांत देते हुए
भरत जी राजा रहुगण को व्यापारी का दृष्टांत देते हुए 

किसी तरह चोरों से बचकर जब वह घबराया हुआ आगे जाता है तो उसका पैर एक झाड़ी से अटक जाता है और वह एक पेड़ पर मुंह के बल गिरता है और उसमें फंस जाता है । वह और अधिक विचलित हो जाता है जब वह देखता है कि एक सफेद और एक काला चूहा उस पेड़ को लगातार काट रहे हैं और एक विशाल सर्प उसका भक्षण करने के लिए नीचे बैठा हुआ है ।

वह घबराया हुआ व्यापारी अपनी मृत्यु को समीप जानकर अत्यंत विचलित हो जाता है परंतु उस पेड़ में मधुमक्खियों का छत्ता होने के कारण शहद की कुछ बूंदे उसके मुंह पर पड़ती है तो वह अपनी पीड़ा भूल कर शहद पीने में मस्त हो जाता है ।  कुछ समय के उपरांत दोनों चूहे उस पेड़ को काट देते हैं तो वह नीचे गिर जाता है और विषैला सर्प उसका भक्षण कर लेता है ।

राजन ठीक इसी प्रकार एक जीवात्मा मनुष्य रूप मे पृथ्वी पर जन्म लेता है उसे अपने पूर्व जन्मों मे किए गए पुण्य कर्मों के कारण ही मनुष्य जन्म मिलता है जिसे उसको ईश्वर की अराधना मे लगाना चाहिए परंतु जब वह संसार चक्र मे आता है तो उसके पीछे उसका मन और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह रूपी छह   चोर लग जाते है जो उसके समस्त पुण्य छीन लेते है । संसार की माया से मोहित होता हुआ जब वह प्राणी अपने जीवन के अंतिम पड़ाव वृद्धावस्था मे पहुंचाता है तो भी उसका मन इन पांच विकारों मे उलझा रहता है और उसे य़ह भी भान नहीं होता की मृत्यु की घड़ी नजदीक है । उसके जीवन चक्र को दिन और रात रूपी चूहे निरंतर काट रहे है और काल रूपी सर्प उसका भक्षण करने के लिए तैय्यार खड़ा है ।

फिर भी वह प्राणी अपने कुटुम्ब, पुत्र और पौत्र के मोह में इतना उलझ जाता है की अपने जीवन का वास्तविक लक्ष्य भूल जाता है और काल रूपी सर्प का ग्रास बन जाता है और अधम गति प्राप्त करता है । इसलिये प्राणी को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह रूपी विकारो से उपर उठ कर अपने मन को वश मे करना चाहिए और एकाग्रचित होकर ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए ।

जड़ भरत जी की दिव्य वाणी को सुनकर राजा रहुगण के संशय का निवारण हो गया और वह आत्मज्ञान प्राप्त करने ईश्वर की तपस्या के लिए चले गए ।

शुकदेव जी कहते हैं कि हे परीक्षित, "जड़ भरत ने अपना अंत समय आने पर ईश्वर के चरणों में अपना ध्यान लगाकर योगाभ्यास के द्वारा अपने शरीर को छोड़ दिया और मोक्ष प्राप्त किया । भरत जी का यह चरित्र अत्यंत कल्याणकारी और दिव्य गुणों से युक्त है और आयु और धन की वृद्धि करने वाला है । उनके चरित्र का पाठ करने से इस लोक में यश और अंत में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है ।"

                               ।। इति श्री।।

Image Sources :

pinterest.com 

Spiritualawareness.com 

indianpuranas.blogspot.com

Also Read:

Click here to Read

Click here to read

Click here to Read

Click here to Read



Comments