ऋषि विश्वामित्र का जन्म तथा अन्य घटनाएँ

Story of Lord Vishvamitra


भारत देश को ऋषिओ और मुनिओ की भूमि कहा जाता है। समय-समय पर अनेक ऋषियों ने अपने चरण कमलों के द्वारा इस भूमि को पवित्र किया हैै । भारतवर्ष की इस पवित्र भूमि पर त्रेतायुग में एक महान ऋषि विश्वामित्र ने जन्म लिया था ।  क्षत्रिय होने के उपरांत भी इन्होंने अपनी कठोर तपस्या के बल पर राजर्षि की उपाधि को प्राप्त किया और राजर्षि से महर्षि  और महर्षि से ब्ह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्मऋषि कहलाए गए ।

विश्वामित्र के जन्म की कथा

महाराज पुरुरवा के वंश में कौशिक नाम के एक अत्यंत तेजस्वी और तपस्वी राजा हुए । महाराज कौशिक ने इंद्र जैसा पुत्र प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं देवराज इंद्र ने उनकेे पुत्र के रूप में जन्म लिया था । महाराज कौशिक के पुत्र का नाम गाधि था । गाधि चक्रवर्ती सम्राट थे ।

Devi satyavati
देवी सत्यवती 

महाराज गाधि की एक अत्यंत रूपवती कन्या थी, जिसका नाम सत्यवती था । महाराज गाधि ने सत्यवती का विवाह ऋषि ऋचिक से किया था । ऋषि ऋचिक, भृगु ऋषि के पुत्र थे । वह सदैव तपस्या में लीन रहते थे । एक बार पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने एक यज्ञ किया और उस यज्ञ से दो खीर के पात्र प्रकट किए । ऋषि ऋचिक ने वह दोनों पात्र अपनी पत्नी सत्यवती को दिए और कहा की एक पात्र वह स्वयं ग्रहण कर ले और दूसरा पात्र अपनी मां को खिला दे । यह कहकर ऋषि ऋचिक तपस्या के लिए चले गए ।

Rishi Richeek
ऋषि ऋचिक

अपनी मां के कहने पर सत्यवती ने वह दिव्य खीर के दोनों पात्र बदल दिए अर्थात, मां को दिए जाने वाला पात्र स्वयं ग्रहण कर लिया और अपना पात्र मां को खिला दिया । जब ऋषि  ऋचिक को यह ज्ञात हुआ तो वह सत्यवती पर बहुत क्रोधित हुुए ।

ऋषि बोले, "मैंने अपनी तपस्या के बल पर तुम्हारे खीर के पात्र में सहनशीलता, धीरज, और परमात्मा को प्राप्त करने वाले गुण भरे थे, और तुम्हारी माता के पात्र में संपूर्ण ऐश्वर्यबल, पराक्रम और क्षत्रियोंचित्र व्यवहार करने वाले गुणों का समावेश किया था । परंतु अज्ञानता वश हुई तुम्हारी इस भूल के परिणाम स्वरूप तुम्हारे यहां अत्यंत क्रोधी और कठोर स्वभाव वाले पुत्र का जन्म होगा और तुम्हारी माता के यहां महातपस्वी और  क्षत्रियोंचित स्वभाव वाले पुत्र का जन्म होगा ।"
 
ऋषि ऋचिक की बात सुनकर सत्यवती अत्यंत घबरा गई और बोली," अज्ञानतावश हुई भूल के कारण मैं आपसे क्षमा मांगती हूं परंतु मैं एक अत्यंत कठोर स्वभाव वाले पुत्र को जन्म नहीं देना चाहती । अतः आप मुझ पर कृपा कीजिए और अपनी तपस्या के बल पर ऐसा कार्य कीजिए कि मेरा पुत्र ऐसा ना हो भले ही मेरा पौत्र ऐसा हो जाए ।" 

सत्यवती की बात सुनकर ऋषि ऋचिक बोले," मैं पुत्र और  पौत्र में कोई भेद नहीं समझता हूं इसलिए तुम एक महातपस्वी पुत्र की माता बनोगी परंतु तुम्हारा पौत्र अत्यंत क्रोधी स्वभाव का होगा ।"

समय आने पर सत्यवती ने भगवान विष्णु के अंश रूप ऋषि  जमदग्नि को जन्म दिया और ऋषि जमदग्नि से भगवान शिव और विष्णु के अंश रूप भगवान परशुराम की उत्पत्ति हुई ।

वहीं दूसरी ओर महाराज गाधि के यहां एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । उनका वह पुत्र विश्वरथ के नाम से विख्यात हुआ । राज कुमार विश्वरथ ने कई विवाह किए और अनेक पुत्रों को जन्म दिया । समय आने पर महाराज गाधि राजकुमार विश्वरथ को राजगद्दी देकर वानप्रस्थ आश्रम को चले गए ।

 राजा विश्वरथ और ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ

महाराज विश्वरथ एक निरंकुश राजा थे । उन्होंने अपनी सीमाएं बढ़ाने के उद्देश्य से अपने राज्य के सभी नवयुवकों को अपनी सेना में नियुक्त कर लिया था । एक बार राजा विश्वरथ अपनी संपूर्ण सेना के साथ एक वन्य प्रदेश से गुजरे । वहां का दिव्य वातावरण देखकर वह बहुत आनंदित हो गए । उनके सेनापति ने उन्हें बताया कि निकट ही यहां पर ऋषि वशिष्ठ का आश्रम है । उन्हीं की तपस्या के प्रभाव से ही इस प्रदेश का वातावरण इतना दिव्य है ।

Rishi vasistha and king Vishvarath
ऋषि वसिष्ठ और राजा विश्वरथ 

ब्रह्मऋषि वशिष्ठ से मिलने के उद्देश्य से महाराज विश्वरथ  उनके आश्रम में पहुंचे । ऋषि वशिष्ठ ने उनका बहुत आदर सत्कार किया । ऋषि वशिष्ठ ने विश्वरथ और उनकी संपूर्ण सेना को भोजन का निमंत्रण दिया । ऋषि वशिष्ठ की बात सुनकर महाराज विश्वरथ संकोच में पड़ गए और उन्होंने कहा, "आप इतनी बड़ी सेना के लिए भोजन की व्यवस्था कैसे करेंगे?" 

ऋषि वशिष्ठ के बहुत आग्रह करने पर महाराज विश्वरथ ने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया । विश्वरथ और उनकी सेना ने बहुत स्वादिष्ट भोजन किया । ऐसा स्वादिष्ट भोजन उन्होंने पहले कभी ग्रहण नहीं किया था । राजा विश्वरथ ऋषि वशिष्ठ पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने ऋषि वशिष्ठ से पूछा, "आपने इतने कम समय में इतनी बड़ी सेना के लिए भोजन की व्यवस्था कैसे की?" 

ऋषि वशिष्ठ बोले, हमारे आश्रम में नंदिनी नाम की एक दिव्य गाय हैं, जो समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई कामधेनु गाय की पुत्री है । उसी गाय ने आपके और समस्त सेना के लिए स्वादिष्ट भोजन उत्पन्न किया हैै । स्वयं देवराज इंद्र ने मुझे यह गाय उपहार स्वरूप दी है ।
Nandini cow
नंदिनी गाय 
ऋषि वशिष्ठ की बात सुनकर और नंदिनी को प्रणाम करके विश्वरथ वहां से चले गए । एक बार राजा विश्वरथ के राज्य में भयानक अकाल पड़ा । उन्होंने अपने सेनापति को ऋषि वशिष्ठ के आश्रम से नंदिनी गाय को लाने की आज्ञा दी । जब सेनापति ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में गाय लेने के लिए पहुंचा तो ऋषि ने उन्हें गाय देने से मना कर दिया । वह बोले,"अगर मैं तुम्हें गाय दे दूंगा, तो मैं अपने आश्रम के 10, 000 छात्रों को भोजन का प्रबंध कहां से करूँगा ।" 

ऋषि वशिष्ठ की यह बात सुनकर सेनापति राजा विश्वरथ के पास पहुंचे और उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया । सेनापति की बात सुनकर राजा अत्यंत क्रोधित हो गए और अपनी सेना को लेकर ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे ।

आश्रम में राजा विश्वरथ ने ऋषि वशिष्ठ को आदेश दिया कि वह नंदिनी गाय को उन्हें सौंप दें । ऋषि वशिष्ठ के मना करने पर राजा के सैनिक नंदिनी गाय को बलपूर्वक वहां से ले जाने लगे । तब क्रोधवश नंदिनी गाय ने उन्हीं के सामान सैनिक प्रकट किए और उन सैनिकों ने राजा विश्वरथ की समस्त सेना का नाश कर दिया ।

अपनी समस्त सेना का नाश देखकर महाराज विश्वरथ अत्यंत क्रोधित हो गए और ऋषि वशिष्ट से बोले,"तुमने अपनी तपस्या की शक्ति के कारण मुझे युद्ध में परास्त कर दिया है, अतः मैं महादेव का तप करूंगा और उनसे शक्ति अर्जित करके पुनः तुमसे युद्ध करने के लिए आऊंगा।" 

विश्वरथ का महादेव की तपस्या करना

इसके उपरांत अपने पुत्र को राजगद्दी देकर महाराज विश्वरथ उत्तर दिशा की ओर हिमालय पर्वत में तप करने के लिए चले गए । उन्होंने महादेव की कठोर तपस्या की । महादेव उनसे प्रसन्न हुए और उन्हें अपने दर्शन दिए और वर मांगने को कहा ।

Vishvarath absorbed in Mabadev's austerity
विश्वरथ, महादेव की तपस्या करते हुए 

विश्वरथ बोले,"शासन करने के लिए एक राजा के पास शक्ति का होना अत्यंत आवश्यक है, इसलिए आप मुझे समस्त प्रकार के दिव्यास्त्रो का ज्ञान दीजिए।" महादेव से दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके विश्वरथ पुनः ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे ।विश्वरथ ने ऋषि को युद्ध की चुनौती दी ।

विश्वरथ ने ऋषि वशिष्ठ पर दिव्यास्त्रों के कई प्रहार किए परंतु उन सभी अस्त्रों को शक्ति को ऋषि वशिष्ठ ने अपने योगदंड की शक्ति से निष्फल कर दिया ।

ऋषि वशिष्ठ का यह कार्य देखकर राजा विश्वरथ अत्यंत आश्चर्य चकित हो गए और वह भूमि पर ही बैठ गए ।  विश्वरथ ने विचार किया," तपस्या से प्राप्त की हुई दिव्य शक्तियों को इस  ब्रह्मऋषि ने अपने दिव्य योगदंड से नष्ट कर दिया है । अतः शस्त्रों की शक्ति निरर्थक है, इसलिए अब मैं पुनः तप करूंगा और ब्रह्मऋषि  की उपाधि प्राप्त करूंगा ।"

देवी  गायत्री को प्रकट करना

यह सोच कर ऋषि विश्वरथ दक्षिण दिशा की ओर चले गए और वहां पर उन्होंने कठोर तपस्या प्रारंभ कर दी । ईश्वर की तपस्या करते हुए कई वर्ष बीत चुके थे । राजर्षि विश्वरथ को इस चराचर जगत की किसी वस्तु का भान नहीं था । वह गहन तपस्या करते हुए तपस्या की सर्वोच्च अवस्था समाधि में स्थिर हो गए थे । वह अनेक वर्षों तक समाधि की अवस्था में ही रहे । समाधि की अवस्था में ही उन्होंने अपने मुख से एक मंत्र का उच्चारण किया ।

            ।। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं।। 
   ।। भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥

उनके मुख से इस मंत्र के उच्चारण के साथ ही देवी गायत्री  अपने संपूर्ण ऐश्वर्या सहित वहां पर प्रकट हो गई । राजऋषि    विश्वरथ ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की ।
Goddess Gayatri
देवी गायत्री 
 
विश्वरथ बोले, है देवी आपमे मुझे देवी लक्ष्मी, देवी पार्वती और देवी सरस्वती का सम्मिलित रूप दिखाई दे रहा है । इस चराचर जगत की समस्त महान शक्तियां भी आप के रूप में प्रकट हो रही हैं । हे देवी, कृपया करके मुझे अपना परिचय दीजिए ।

तब वह देवी बोली, "मैं देवी गायत्री हूं और मेरा निवास स्थान सूर्य लोक के मध्य में हैै । हे विश्वरथ, तुमने अपनी मंत्र शक्ति के माध्यम से मुझे साकार रूप प्रदान किया है ।" देवी गायत्री बोली,  "विश्वरथ मुझे प्रकट करके तुम इस संपूर्ण जगत के मित्र बन गए हो इसलिए आज से तुम्हारा नाम विश्वामित्र होगा ।" देवी गायत्री विश्वामित्र को अनेक आशीर्वाद दे कर वहां से अंतर्ध्यान हो गई ।

विश्वामित्र और राजा त्रिशंकु की कथा

अयोध्या नगरी में एक राजा सत्यव्रत राज करता था । वह बहुत धर्म परायण राजा था । स्वर्ग प्राप्ति की प्रबल इच्छा  से वह अपने पुत्र हरिश्चंद्र को राजगद्दी देकर वानप्रस्थ आश्रम में भगवान की तपस्या के लिए चला गया । वानप्रस्थ आश्रम में वह राजा यह विचार करने लगा कि उसने अपने समस्त जीवन में अनेक पुण्य किए हैं और यह मेरा शरीर उसका साक्षी रहा है । अतः मुझे इस शरीर के सहित ही स्वर्ग में प्रवेश मिलना चाहिए ।

यह विचार कर वह राजा अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ के पास पहुंचा और उन से यह आग्रह करने लगा कि वह ऐसा कोई उपाय करें जिस से वह अपने शरीर के सहित स्वर्ग को चला जाए । ऋषि वशिष्ठ बोले, पृथ्वी लोक का कोई भी व्यक्ति अपने शरीर के सहित स्वर्ग नहीं जा सकता है । इसलिए अपने हठ को त्याग दो ।

ऋषि वशिष्ठ के मना करने पर सत्यव्रत उनके पुत्र शक्ति के पास पहुंचे । ऋषि शक्ति से उन्होंने स्वर्ग में जाने वाले यज्ञ करने का आग्रह किया । ऋषि शक्ति ने भी उन्हें मना कर दिया परंतु सत्यव्रत अपनी हठ पर अड़े रहे और बार-बार ही शक्ति को शरीर सहित स्वर्ग में जानेवाले यज्ञ करने का आग्रह करते रहे । उन्होंने यह कार्य करने के लिए ऋषि शक्ति को कई प्रकार के प्रलोभन भी दिए । ऋषि शक्ति उनसे बहुत क्रोधित हुए और उन्हें चांडाल होने का श्राप दिया । ऋषि शक्ति ने सत्यव्रत को कहा, "मेरे समक्ष तुमने तीन प्रकार के अपराध किए हैं इसलिए तुम आज से त्रिशंकु के नाम से जाने जाओगे ।" 

ऋषि शक्ति से श्राप पाकर शापित राजा त्रिशंकु चांडाल के रूप में पृथ्वी पर भटकते रहे । परंतु उनके मन में शरीर के सहित स्वर्ग जाने का मोह नहीं गया था । उनके मंत्रियों ने उन्हें बताया की ऋषि विश्वामित्र ही उनका उद्धार कर सकते हैं ।

शापित राजा त्रिशंकु राजऋषि विश्वामित्र को ढूंढते हुए उनके पास पहुंचे । उन्होंने अपनी सारी व्यथा उनको सुनाई । त्रिशंकु बोले, उन्होंने अपने समस्त जीवन में केवल धर्म के ही कार्य किए हैं इसलिए वह इस शरीर सहित स्वर्ग में जाने के योग्य है । ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें सांत्वना दी और कहा कि वह शीघ्र ही उन्हें शरीर के सहित स्वर्ग भेजने के लिए स्वर्गारोहण यज्ञ करेंगे ।
 
राजऋषि विश्वामित्र ने त्रिशंकु के लिए स्वर्गारोहण यज्ञ आरंभ किया । परंतु देवताओं ने उनकी कोई भी आहुति स्वीकार नहीं की । देवताओं के इस कार्य से विश्वामित्र बहुत क्रोधित हो गए और त्रिशंकु से बोले, "मैं तुम्हें अपनी मंत्र शक्ति के बल पर शरीर के सहित स्वर्ग में भेज देता हूं ।" 

Trishanku and Sage Vishvamitra
देवराज इंद्र, त्रिशंकु और ऋषि विश्वामित्र 

राजऋषि विश्वामित्र की मंत्र शक्ति के बल पर त्रिशंकु शरीर के सहित स्वर्ग में पहुंचे । परंतु देवराज इंद्र ने उन्हें स्वर्ग से नीचे गिरा दियाा ।"हे विश्वामित्र, मुझे बचा लो" यह कहते हुए त्रिशंकु स्वर्ग से नीचे गिरने लगे । राजऋषि विश्वामित्र ने अपनी मंत्र शक्ति के माध्यम से त्रिशंकु को अंतरिक्ष में ही रोक दिया ।

Sage Vishvamitra and Trishanku
देवराज इंद्र, त्रिशंकु और ऋषि विश्वामित्र

देवराज इंद्र के इस कार्य से राजऋषि विश्वामित्र बहुत क्रोधित हो गए थेे । उन्होंने त्रिशंकु के लिए एक नया स्वर्ग बनाने का निश्चय किया । उन्होंने अपनी मंत्र शक्ति के माध्यम से एक नये स्वर्ग की रचना की ओर त्रिशंकु को वहां पर भेज दिया ।

नए स्वर्ग की सृष्टि से सभी देवता अत्यंत भयभीत हो गए और उन्हें अपना वर्चस्व खतरे में दिखाई दिया । देवराज इंद्र ने देव गुरु बृहस्पति और देवर्षि नारद को विश्वामित्र को समझाने के लिए भेजा । देवगुरु बृहस्पति ने विश्वामित्र को नए स्वर्ग का निर्माण कार्य रोकने का आग्रह किया ।

विश्वामित्र बोले, "अगर आप त्रिशंकु कोो अपने स्वर्ग में रहने दे तभी मैं नए स्वर्ग का कार्य रोकूंगा ।" देव गुरु बृहस्पति उनकी बात मान गए और विश्वामित्र जी को आश्वस्त करके वह वहां से स्वर्ग को चले गए ।

देवराज इंद्र का विश्वामित्र की तपस्या भंग करने का प्रयत्न करना 

राजऋषि विश्वामित्र का एकमात्र उद्देश्य ब्रह्म ऋषि की उपाधि प्राप्त करना था इसके लिए वह एक बार पुनः तपस्या में लीन हो गए । देवराज इंद्र को उनकी तपस्या से भय होने लगा । इंद्र ने यह सोचा कि कहीं विश्वामित्र त्रिशंकु के लिए इंद्रासन ना मांग लेे ।

देवताओं की समस्त शक्तियां एकत्र करके इंद्र ने एक दिव्य व्यक्ति का सृजन किया और उसे विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा । वह व्यक्ति अनेक प्रयासो के उपरांत भी राज ऋषि विश्वामित्र की तपस्या ना भंग कर पाया । फिर इंद्र ने अप्सरा रंभा को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा । 
Nymph Rambha
अप्सरा रंभा

रंभा अत्याधि आत्मविश्वास और घमंड से परिपूर्ण थी । वह विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए पहुंची ।  विश्वामित्र इस समय पत्थर की मूर्ति बने तप में लीन थे । रंभा ने कामदेव की सहायता से कामबाण विश्वामित्र के ऊपर छोड़े । विश्वामित्र पर इसका कोई प्रभाव नहीं कर पड़ा और वह रंभा पर अत्याधिक क्रोधित हो गए । उन्होंने अप्सरा रंभा को पाषाण हो जाने का श्राप दिया । अप्सरा रंभा के क्षमा मांगने पर उन्होंने कहा कि निकट भविष्य में एक ऋषि उसे इस श्राप से मुक्त करेंगे ।

अप्सरा मेनका का आगमन

रंभा के पाषाण बनने से देवराज इंद्र बहुत भयभीत हो गए थे । उन्होंने देवगुरु बृहस्पति से इस समस्या के समाधान का उपाय पूछा । बृहस्पति जी ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा मेनका का नाम प्रस्तावित किया । ऋषि कश्यप और देवी कपिला की अत्याधिक सुंदर पुत्री अप्सरा मेनका सर्वगुण संपन्न थी । देवराज इंद्र ने अप्सरा मेनका को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने का आदेश दिया । 

Menka and Sage Vishvamitra
अप्सरा मेनका 

मेनका, विश्वामित्र की तपस्थली में पहुंची उसने विश्वामित्र को देखकर दंडवत प्रणाम किया । राजऋषि विश्वामित्र उस समय गहन तपस्या में लीन थे । मेनका ने मन ही मन से यह आशीर्वाद मांगा कि वह जिस कार्य के लिए आई है उसमें वह सफल हो जाए ।
पी
Nymph Menka fascinating Sage Vishvamitra
अप्सरा मेनका 

मेनका ऋषि विश्वामित्र की कुटिया के पास ही रहने लगी । कभी वह विश्वामित्र के लिए खाना बना कर रख देती तो कभी उनकी पूजा के लिए फूलों का प्रबंध कर देती । उसने ऋषि  विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के कई प्रयास किए किन्तु ऋषि विश्वामित्र ने उसकी तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं दिया ।

प्रतिदिन प्रातः कालीन विश्वामित्र सरोवर में स्नान के लिए जाते थे । जब वह स्नान के लिए गए तो उन्होंने मेनका को सरोवर में स्नान करते हुए देखा । ऋषि विश्वामित्र उसके रूप सौंदर्य को  प्रति क्षण निहारते रहे । स्नान करने के उपरांत मेनका ने उनकी चरण वंदना की ।

महर्षि विश्वामित्र पुनः अपनी कुटिया मे आ गए परंतु अब वह बारंबार मेनका के बारे में ही सोच रहे थे । अब उनका मन तपस्या में नहीं लग रहा था । जब वह तपस्या करने के लिए बैठे उसी क्षण मेनका वहां आकर उन्हें रिझाने लगी । विश्वामित्र पूरी तरह से मेनका के सौंदर्य के जाल में फंस चुके थेे । उन्होंने तपस्या छोड़ कर मेनका से कहा कि उससे विवाह करना चाहते हैं ।

उनके यह वाक्य सुनकर अप्सरा मेनका अत्याधिक प्रसन्न हो गई । मेनका और राजर्षि विश्वामित्र ने गंधर्व विवाह कर लिया । अप्सरा मेनका राजर्षि विश्वामित्र के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी । समय आने पर अप्सरा मेनका ने एक कन्या को जन्म दियाा, जिसका नाम उन्होंने शकुंतला रखा ।विश्वामित्र, शकुंतला के जन्म से बेहद प्रसन्न थे ।

देवराज इंद्र का आगमन

Lord Indra
देवराज इंद्र 

ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग होने के उपरांत देवराज इंद्र ने अप्सरा मेनका को स्वर्ग में प्रस्थान करने को कहा । वह कई बार मेनका को लेने विश्वामित्र की कुटिया में आए । अप्सरा मेनका ने ऋषि विश्वामित्र को अपने आने का सारा वृतांत सुना दिया । उसकी बातें सुनकर ऋषि विश्वामित्र को अपने आप पर बहुत पश्चाताप हुआ । वह मेनका और शकुंतला को वहीं छोड़कर पुनः तप करने के लिए चले गए । अप्सरा मेनका ने भी देवराज इंद्र के साथ स्वर्ग को प्रस्थान कियाा । देवयोग से उसी समय ऋषि कणव वहां पर आए और उन्होंने शकुंतला को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया ।

एक बार फिर ऋषि विश्वामित्र घोर तपस्या में लीन हो गए थे । उनके इस कठिन तपस्या के परिणाम स्वरूप एक दिव्या खीर का पात्र प्रकट हुआ । महर्षि विश्वामित्र उसको खाने के लिए बैठे ही थे कि एक याचक उनके द्वार पर आया और भिक्षा मांगने लगाा । महर्षि ने अपनी दिव्य दृष्टि से ज्ञात कर लिया था कि वह देवराज इंद्र है । ऋषि विश्वामित्र ने अपनी तपस्या का फल वह खीर का पात्र इंद्रदेव को दे दिया । इंद्रदेव ने उनको कई आशीर्वाद दिए और स्वर्ग को प्रस्थान किया ।

राजा हरीशचंद्र की कथा 

एक बार देवराज इंद्र ने स्वर्ग में एक महासभा का आयोजन किया जिसमें सभी ब्रह्मऋषियों को आमंत्रित किया गयाा । ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के कहने पर उन्होंने महर्षि विश्वामित्र को भी उस सभा में आमंत्रित किया ।

देवराज इंद्र ने प्रश्न किया, "संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु क्या है? ऋषि वशिष्ट ने कहा कि सत्य ही संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु है । सत्य बोलने वाला व्यक्ति कभी भी अपने धर्म से विमुख नहीं होता है ।" ऋषि वशिष्ठ ने कहां कि राजा हरिश्चंद्र सत्यवादी है और वह कभी भी अपने धर्म से विमुख नहीं हो सकता । महर्षि  विश्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ से कहा कि वह  हरिश्चंद्र की परीक्षा अवश्य लेंगे और अगर हरिश्चंद्र परिक्षा मैं सफल हुए तो वे अपना आधा तपोबल उन्हें दे देंगे ।

एक बार राजा हरिश्चंद्र को स्वप्न में महर्षि विश्वामित्र ने दर्शन दिए । राजा हरिश्चंद्र ने स्वप्न में ही अपना संपूर्ण राज्य महर्षि विश्वामित्र को दान कर दिया । जब महाराज हरिश्चंद्र सुबह उठे तो वह अपने सपने के बारे में ही विचार करने लगे । उसी दिन उनकी राज्यसभा में महर्षि विश्वामित्र पधारे । विश्वामित्र जी ने राजा हरिश्चंद्र को स्वप्न के बारे में बताया ।

King Harishchandra
राजा हरीशचंद्र 

महर्षि बोले, स्वप्न में तुमने यह राज्य मुझे दान कर दिया है इसलिए इस राज्य पर मेरा अधिकार है । राजा हरिश्चंद्र ने स्वप्न की बात स्वीकार की और अपना संपूर्ण राज्य महर्षि विश्वामित्र को दान में दे दिया ।

ऋषि बोले, दक्षिणा के बिना दान पूर्ण नहीं होता है इसलिए मुझे दक्षिणा में 1000 स्वर्ण मुद्राएं चाहिए । हरिश्चंद्र बोले, वह 1000 स्वर्ण मुद्राएं आप राजकोष से ले सकते हैं । विश्वामित्र बोले, आपने मुझे अपना संपूर्ण राज्य दान कर दिया है इसलिए सम्पूर्ण राजकोष पर मेरा अधिकार हैै ।

राजा हरिश्चंद्र ने महर्षि विश्वामित्र की दक्षिणा को चुकाने के लिए एक माह का समय मांगा । विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र को उनकी पत्नी और पुत्र के सहित नगर छोड़ने की आज्ञा दी ।अपनी राजधानी अयोध्या को छोड़कर हरिश्चंद्र किसी अन्य राज्य में चले गए और कठिन श्रम करने लगे ।

दक्षिणा के लिए महर्षि विश्वामित्र से लीं गई अवधि पूर्ण होने वाली थी । विश्वामित्र हरिश्चंद्र के पास गए और बोले, अगर वह अपना सत्यव्रत छोड़ दे तों वे उसका राज्य लोटा देंगे । हरिश्चंद्र बोले, वह अपने प्राण त्याग सकते है परंतु सत्य को नहीं त्याग सकते ।

रिश्चंद्र अपनी पत्नी तारामती और अपने पुत्र रोहित को लेकर काशी नगरी में पहुंचे । कोई अन्य उपाय ना जान कर  उन्होंने अपने आप को बेचने का निश्चय किया । हरिश्चंद्र अपनी पत्नी और पुत्र को लेकर काशी के व्यापारिक स्थल पहुंचे । 

Harishchandra selling his wife and son to a brahmin
हरिश्चंद्र एक ब्राह्मण को अपनी पत्नी और पुत्र बेचते हुए 

हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी तारामती को पुत्र रोहित सहित एक ब्राह्मण को बेच दिया । परंतु फिर भी वह ऋषि विश्वामित्र को देने योग्य केवल आधा धन ही जुटा पाए थे । हरिश्चंद्र ने स्वयं को भी एक चांडाल को बेच दिया । हरिश्चंद्र ऋषि विश्वामित्र को उनकी दक्षिणा देकर चांडाल के साथ चले गए ।

King harishchandra offering grants to Sage Vishvamitra
हरिश्चंद्र ऋषि विश्वामित्र को दक्षिणा देते हुए 

चांडाल हरिश्चंद्र को लेकर श्मशान में पहुंचा । उस चांडाल ने हरिश्चंद्र को शवों को जलाने का कार्य दिया । चांडाल ने हरिश्चंद्र से कहा, वह शवों को जलाने के लिए उनके परिजनों से पांच स्वर्णमुद्रा कर के रूप में अवश्य प्राप्त करें ।

उधर दूसरी और तारामती और उसके पुत्र रोहित का जीवन बहुत कठिनाइयों से व्यतीत हो रहा था । वह ब्राह्मण उनसे कठिन परिश्रम करवाता था और बहुत बुरा व्यवहार करता था । एक बार तारामती ने अपने पुत्र रोहित को लकड़िया एकत्र करने के लिए भेजा । वहां पर एक सर्प के काटने से रोहित की मृत्यु हो गई ।  

तारामती अपने पुत्र का शव लेकर शमशान पहुंची । हरिश्चंद्र अपने पुत्र के शव को देख कर बहुत दुखी हुए और उन्होंने बहुत विलाप किया । हरिश्चंद्र बोले, वह अपने स्वामी की आज्ञा के कारण पांच स्वर्णमुद्रा लिए बिना शव का अंतिम संस्कार नहीं कर सकते इसलिए किसी भी प्रकार से पांच स्वर्णमुद्रा का प्रबंध करो, तभी वह अपने पुत्र के शव का अंतिम संस्कार करेंगे ।

जब तारामती स्वर्णमुद्रा का प्रबंध करने के लिए शमशान से निकली तो उसे रास्ते में एक बालक का शव दिखाई दिया । वह उस नगरी के राजकुमार का शव था । तभी राज सैनिक वहां पर आए और तारामती को राजकुमार की हत्यारिन समझकर राजा के समक्ष ले गए । राजा ने तारामती  को मृत्युदंड की सजा दी ।

सैनिक तारामती को लेकर श्मशान में पहुंचे । शमशान के चांडाल ने हरिश्चंद्र को तारामती का सर धड़ से अलग करने की आज्ञा दी । हरिश्चंद्र अपने हाथों में खडग लेकर तारामती के पास पहुंचे । ज्यों ही उन्होंने तारामती को मारने के लिए अपनी तलवार उठाई उसी समय महर्षि विश्वामित्र वहां पर प्रकट हो गए और उन्होंने अपनी हार स्वीकार की ।

King Harishchandra and his family, receiving blessings from deities
देवताओं से आशिर्वाद प्राप्त करते हुए हरीशचंद्र और उनका परिवार 

विश्वामित्र बोले, हे राजा हरिश्चंद्र तुम धन्य हो तुम्हारे जैसा सत्यवादी राजा ना भूतकाल में हुआ है और ना भविष्य में ही होगा । विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को बताया कि ब्राह्मण के रूप में भगवान शिव और चांडाल के रूप में स्वयं धर्मराज उनकी परीक्षा ले रहे थे । विश्वमित्र ने उनके पुत्र रोहित को जीवित कर दिया । उन्होंने अपना आधा तपोबल महाराज हरिश्चंद्र को अर्पित किया ।

ब्रह्मऋषि की उपाधि प्राप्त करना 

Sage Vishvamitra
ऋषि विश्वामित्र

एक बार फिर महर्षि विश्वामित्र अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ब्रह्मदेव की तपस्या में लीन हो गए । ब्रह्मदेव ने उनको दर्शन दिए और ब्रह्मऋषि की उपाधि प्रधान की । 

महर्षि विश्वामित्र बोले, वह केवल ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के समक्ष ही यह उपाधि ग्रहण करेंगे । सभी देवताओं और ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के समक्ष महर्षि विश्वामित्र ने ब्रह्मऋषि की उपाधि को ग्रहण किया । ऋषि वशिष्ट ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की ।

इसके उपरांत, अपने एक यज्ञ को पूर्ण करने के लिए वह राजा दशरथ की राज्यसभा में गए और उनसे अधर्मी राक्षसों का वध करने के लिए भगवान राम और लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने की अनुमति प्राप्त की । ब्रह्मऋषि विश्वामित्र ने श्रीं राम और लक्ष्मण को अनेक दिव्यास्त्रो का ज्ञान प्रदान किया ।

उनकी दिव्य उपस्थिति में ही भगवान राम ने ताड़का सहित अनेक राक्षसों का वध किया और पत्थर बनी हुई अहिल्या का उद्धार किया । ब्रह्मऋषि विश्वामित्र के समक्ष ही भगवान राम ने शिव धनुष को तोड़कर जनक नंदिनी सीता से विवाह किया।

Sage Vishvamitra along with lord Rama and Lakshmana
ऋषि विश्वामित्र, श्री राम तथा लक्ष्मण सहित 

मानवता की भलाई के लिए ब्रह्मऋषि विश्वामित्र ने कई वैज्ञानिक अनुसंधान किए और अनेक यज्ञ किए । मानवता के लिए किए गए उत्कृष्ट कार्य के कारण उनकी गणना सप्त         ऋषिओ में की जाती है ।    

Ursa Major
सप्तर्षिमंडल
   ।। इति श्रीं ।। 

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