भगवान विष्णु |
मधु और कैटभ का जय और विजय के रूप में श्री हरि का द्वारपाल होना
सनकादिक ऋषियों का जय और विजय को श्राप देना
जय और विजय संपूर्ण समर्पण से भगवान विष्णु की सेवा करते थे । वह दोनों भगवान विष्णु के पवित्र मंत्रों का उच्चारण करते रहते थे । एक बार श्री हरि की बलिष्ठ भुजाओं को देखकर उन्हें जिज्ञासा हुई कि श्री हरि की भुजाओं में कितना बल है ।सबके मन का हाल जान ने वाले अंतर्यामी श्री हरि से यह बात छुपी ना रह सकीं ।
सनकादिक ऋषि |
एक बार भगवान की माया से प्रेरित हो कर सनकादिक ऋषि भगवान विष्णु के दर्शन को वैकुंठ लोक में पधारे । जय और विजय ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया और आगे नहीं जाने दिया । सनकादिक ऋषियों के अनेक अनुनए करने के उपरांत भी जय और विजय ने उन्हें श्री हरि के दर्शन नहीं करने दिए ।
जय और विजय |
जय और विजय के इस कार्य से कुपित होकर सनकादिक ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया कि वह तीन जन्मों तक पृथ्वी लोक में राक्षस योनि में जन्म लेंगे ।
उनका यह वार्तालाप सुनकर श्री हरि भी वहां पर प्रकट हो गए। उन्होंने जय और विजय को बताया कि ब्राह्मण उनके लिए सर्वथा पूजनीय हैं और वह कभी भी उनके दर्शनों को आ सकते हैं । हरि बोले, ऋषियों का दिया हुआ श्राप टल नहीं सकता इसलिए तुम्हें पृथ्वी लोक में जाकर राक्षस योनि में जन्म लेना होगा ।
अपनी भूल का अहसास होने पर जय और विजय ने श्री हरि और सनकादिक ऋषियों से क्षमा याचना की । उन्होंने पूछा," राक्षस योनि से हम मुक्त कैसे होंगे?" तब श्री हरि बोले, "आपको राक्षस योनि से मुक्त कराने के लिए मैं स्वयं पृथ्वी पर अवतार लूंगा ।"
हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप का जन्म
सनकादिक ऋषियों के श्राप के अनुसार जय और विजय ने ऋषि कश्यप और देवी दिति के यहां हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष के रूप में जन्म लिया । उनके जन्म लेते ही संसार में अनेक अपशकुन दिखाई दिए । वे दोनों अत्यंत पराक्रमी योद्धा थे । उस समय संपूर्ण पृथ्वी पर उनके समान कोई अन्य बलशाली योद्धा नहीं था ।
हिरण्याक्ष का स्वर्ग पर आक्रमण
देवताओं को स्वर्ग का अधिकार मिलने से वह दोनों अत्यंत कुपित थे । वह देवताओं को अपना परम शत्रु मानते थे । स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त करने की इच्छा से दैत्यराज हिरण्याक्ष ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया । युद्ध में इंद्र आदि कोई भी देवता हिरण्याक्ष के समक्ष ठहर नहीं सका । युद्ध में देवताओं की पराजय हुई और वह घबराकर परम पिता ब्रह्मदेव की शरण में गए ।
ब्रह्मदेव |
दैत्यराज हिरण्याक्ष द्वारा पृथ्वी को उसकी धुरी से हटाना
हिरण्याक्ष ने संपूर्ण पृथ्वी पर हाहाकार मचा दिया था । देवता फिर से शक्ति ना प्राप्त कर सकें इसके लिए उसने एक अत्यंत दुष्कर कार्य किया । हिरण्याक्ष ने अपने अपरिमित बल से पृथ्वी को उसकी धुरी से हटा दिया और उसे रसातल में ले जाकर जल में डुबो दिया ।
हिरण्याक्ष |
हिरण्याक्ष के इस दुष्कर कार्य से देवता अत्यंत चिंतित हो गए और वह संसार की रक्षा के लिए परम पिता ब्रह्मदेव की शरण में गए । उन्होंने ब्रह्मदेव की अनेक प्रकार से स्तुति की ।
वाराह अवतार
देवताओं को उनका अधिकार दिलवाने और पृथ्वी की रक्षा के लिए संसार के पालनहार श्री हरि विष्णु परम पिता ब्रह्मदेव की नासिका से वराह रूप में प्रकट हुए । भगवान वाराह अत्यंत लघु रूप में ब्रह्मदेव के नासिका से प्रकट हुए थे परंतु देखते ही देखते उनका यह रूप संपूर्ण ब्रह्मांड में दृष्टिगोचर होने लगा ।
देवताओं ने भगवान वाराह की अनेक प्रकार से स्तुति की । भगवान वाराह ने कहा, वह शीघ्र ही हिरण्याक्ष का वध कर देवताओं को भयमुक्त करेंगे ।
भगवान वाराह द्वारा पृथ्वी को उसकी धुरी पर पुनः स्थापित करना
शीघ्र ही भगवान वाराह रसातल में पहुंच गए । उन्होंने जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी एक दाढ़ के अग्रभाग से उठा लिया और उसे पुनः उसकी धुरी पर स्थापित कर दिया । उस भयानक असुर हिरण्याक्ष से मुक्त करने पर देवी पृथ्वी ने भगवान वाराह की अनेक प्रकार से स्तुति की ।
भगवान वाराह |
पृथ्वी को उठाने और उसे स्थापित करने के संयोग से भगवान वाराह के पसीने के कण भूमि पर गिरे थे जिससे भूमि के पुत्र भौमासुर का जन्म हुआ था । भूमि का वह पुत्र नरकासुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
हिरण्याक्ष वध
तत्पश्चात, भगवान वाराह ने उस भयानक असुर हिरण्याक्ष को युद्ध के लिए ललकारा । हिरण्याक्ष और भगवान वाराह के बीच भीषण युद्ध आरंभ हो गया । अत्यंत भीषण युद्ध के उपरांत भगवान वाराह ने अपने तीक्ष्ण खुरों के प्रहारों से हिरण्याक्ष का वध कर दिया । देवताओं ने भगवान वाराह की अनेक प्रकार से स्तुति की ।
हिरण्याक्ष वध |
दुर्धर असुर हिरण्याक्ष का वध करने के उपरांत भी भगवान वाराह अत्यंत क्रोधित थे । उस समय देवी लक्ष्मी ने वाराही अवतार लिया और उनके क्रोध को शांत किया ।
देवी वाराही |
देवी पृथ्वी, ब्रह्मदेव, महादेव और अन्य सभी देवताओं ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की । प्रसन्न होकर भगवान वाराह ने देवी पृथ्वी और अन्य सभी देवताओं को अनेक आशीर्वाद दिए ।
उन्होंने मानव के रहने के योग्य बनाने के लिए पृथ्वी पर अनेक नदियों और पर्वतों का निर्माण किया । संपूर्ण पृथ्वी को असुरों के आतंक से मुक्त करने के उपरांत भगवान वाराह पुनः अपने लघु रूप में आ गए और परम पिता ब्रह्मदेव की नासिका में समा गए ।
।। इति श्री।।
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