महाराज परीक्षित की कथा तथा श्रीमद्भागवत का प्राकट्य

महाराज परीक्षित की कथा

महाराज परीक्षित की कथा

पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भागवत महापुराण ज्ञान और भक्ति का स्तोत्र है । माना जाता है कि जो व्यक्ति श्रीमद्भागवत का पाठन और श्रवण करते हैं वह भौतिक जगत में सुखों को प्राप्त करते हुए अंत में मोक्ष प्राप्त करते है ।

श्रीमद्भागवत महापुराण में वीर अभिमन्यु के पुत्र महाराज परीक्षित प्रश्न कर रहे हैं और वेदव्यास जी के पुत्र भगवान शुकदेव उनका उत्तर देकर उनकी जिज्ञासा को शांत कर रहे हैं । श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के अष्टम अध्याय मे महाराज परीक्षित की कथा का वर्णन मिलता है ।

महात्मा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाते हुए शुकदेव जी
महात्मा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाते हुए शुकदेव जी 

महाराज परीक्षित को वेदों और शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान था । उन्होंने भगवान शुकदेव से आत्मा, परमात्मा और संसार से संबंधित सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों पर अनेक प्रश्न किए । भगवान शुकदेव राजा परीक्षित के मध्य हुई यह वार्ता श्रीमद्भागवत महापुराण के रूप में संसार के सामने प्रकट हुई ।

महाराज परीक्षित का जन्म

महाभारत का युद्ध अपने अंतिम चरण में था । कौरवों की पराजय हो चुकी थी और दुर्योधन मरणासन्न अवस्था में भूमि पर गिरा हुआ था । महारथी दुर्योधन की यह स्थिति देखकर वीर अश्वत्थामा अत्यंत व्याकुल थे । अश्वत्थामा ने दुर्योधन के समक्ष यह प्रतिज्ञा ली कि वह पांडवों और उनके बीज का समूल विनाश कर देगा ।

अश्वत्थामा ने महारानी द्रौपदी के पांचों पुत्रों को पांच पांडव समझ कर रात के अंधेरे में उनका वध कर दिया तदुपरांत वह पांडवों की मृत्यु का समाचार लेकर दुर्योधन के पास पहुंचा । भोर हो चुकी थी और दुर्योधन भूमि पर मृत पड़ा हुआ था । दुर्योधन के शव को देखकर अश्वत्थामा ने अत्यंत विलाप किया ।  

सुबह पांडवों के शिविर से विलाप का स्वर सुनकर जब  अश्वत्थामा ने देखा की पांडव जिवित है और उसने भूल से द्रोपदी के पांचो पुत्रों का वध कर दिया है तो वह अपने निंदनीय कार्य से अत्यंत प्रसन्न हुआ ।

अश्वत्थामा को खोजते हुए पांडव कौरव शिविर में पहुंचे ।अश्वत्थामा, पांडवों को भगवान श्री कृष्ण के साथ देखकर  अत्यंत विचलित हो गया । उसने ब्रह्मास्त्र का संधान किया और और उसे पांडवों का वध करने की आज्ञा दी । अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र का संधान करते देख महारथी अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का संधान किया । 

दो प्रलयंकारी शक्तियों का आपस में टकराता हुआ देख भगवान वेदव्यास तत्क्षण वहां प्रकट हो गए और उन्होंने महारथी अर्जुन और अश्वत्थामा को अपना-अपना ब्रह्मास्त्र लौटाने की आज्ञा दी । अर्जुन ने मंत्र शक्ति से अपना ब्रह्मास्त्र वापस लौटा लिया परंतु अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने की विधि ज्ञात नहीं थी ।

अश्वत्थामा और अर्जुन ब्रह्मास्त्र चलाते हुए
अश्वत्थामा और अर्जुन ब्रह्मास्त्र चलाते हुए 

वह बहुत अभिमान पूर्वक बोले, "मैं आपके रहते हुए पांडवों का वध तो नहीं कर सकता परंतु मैं उनके बीज को अवश्य नष्ट कर दूंगा ।" यह कहकर अश्वत्थामा ने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल दी और उसे अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा की ओर छोड़ दिया ।

अश्वत्थामा के इस कार्य से भगवान श्री कृष्ण अत्यंत क्रोधित हो गए उन्होंने अश्वत्थामा के मस्तक पर लगी हुई दिव्य मणि को बलपूर्वक उतार लिया और उसे कलयुग के अंत तक भटकने का श्राप दिया ।

भगवान श्री कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र के तेज को शांत किया और उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु की रक्षा की । श्री कृष्ण बोले, गर्भ में ही इस बालक की परीक्षा होने के कारण यह संसार में परीक्षित के नाम से जाना जाएगा ।

श्री कृष्ण द्वारा गर्भ मे पल रहे शिशु की रक्षा
श्री कृष्ण द्वारा गर्भ मे पल रहे शिशु की रक्षा 

हस्तिनापुर लौटकर युधिष्ठिर सिंहासन पर आरूढ़ हुए ।    युधिष्ठिर के राजा बनने से समस्त प्रजा में हर्ष की लहर दौड़ गई । समय आने पर देवी उत्तरा के गर्भ से बालक परीक्षित का जन्म हुआ । बालक परीक्षित का लालन-पालन राजमहल में ही हुआ । पांडवों ने उन्हें शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों का पूर्ण ज्ञान कराया । वह अपने पिता अभिमन्यु और पितामह अर्जुन की तरह एक महान योद्धा थे ।

विवाह योग्य होने पर परीक्षित का विवाह मत्स्य देश की राजकुमारी इरावती से हुआ । राजकुमारी इरावती महाभारत के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए राजकुमार उत्तर की पुत्री थी । देवी इरावती ने परीक्षित की चार संतानों को जन्म दिया । उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम जन्मेजय था ।

परीक्षित का राज्यभिषेक 

समय बहुत तेजी के साथ बदल रहा था । संसार मे कलयुग का आगमन हो चुका था । भगवान श्री कृष्ण पृथ्वी लोक से अपनी लीला समाप्त कर अपने निज धाम वैकुण्ठ लोक पधार चुके थे ।श्री कृष्ण के संसार त्यागने के उपरांत पांडव बहुत दुखी रहते थे ।  युधिष्ठिर का राजकार्य मे मन नहीं लगता था । समय आने पर युधिष्ठिर ने परीक्षित का राज्यभिषेक कर दिया और सभी पांडव अपनी पत्नी द्रोपदी के साथ स्वर्गारोहण को चले गए । 

स्वर्गारोहण को जाते हुए पांडव
स्वर्गारोहण को जाते हुए पांडव

महाराज परीक्षित अजेय योद्धा थे । उन्होंने अपने बाहुबल से समस्त पृथ्वी को जीत लिया था । वह अपनी प्रजा के कल्याण के लिए सदेव तत्पर रहते थे । उन्होंने गंगा नदी के तट पर अनेक अश्वमेध यज्ञ किए । वह ब्राह्मणों और साधुओं का अत्यंत सम्मान करते थे ।

महाराज परीक्षित
महाराज परीक्षित 

धर्म और पृथ्वी का संवाद

महाराज परीक्षित का राज्य सुख समृद्धि से संपन्न था । संसार में कलयुग का प्रभाव बढ़ रहा था । लोगों की आसक्ति, ईर्ष्या और अहंकार की वृत्ति मे लगातार वृद्धि रही थी । महाराज परीक्षित कलयुग के आगमन से अत्यंत चिंतित थे । 

कलयुग का आगमन 

एक बार महाराज परीक्षित दिग्विजय कर हस्तिनापुर लौट रहे थे जब उनकी सेना एक वन्य प्रदेश से निकली तो उन्होंने एक आश्चर्यजनक दृश्य देखा ।

उन्होंने देखा कि एक बैल केवल एक पैर से खड़ा है और पास में खड़ी हुई एक गाय उसे निहार रही है । वह दोनों आपस में  मनुष्यों की भांति वार्ता कर रहे हैं । गाय उस बैल से कह रही है कि भगवान कृष्ण के पृथ्वीलोक त्यागने के उपरांत उनकी यह दशा हो गई है । जब तक श्री कृष्ण इस भूमि पर थे तब तक आप के चारों चरण तप, दया, पवित्रता और सत्य सुरक्षित थे  परंतु अब आपके तीनों पैर टूट चुके हैं और केवल सत्य के बल पर ही आप चल पा रहे हो । मुझे डर है कि वह भयानक कलयुग आकर आपका चतुर्थ चरण भी तोड़ देगा । यह कहकर गाय की आंखों से अश्रुधारा बह निकली ।

गाय और बैल का संवाद
गाय और बैल का संवाद 

गाय और बैल अभी वार्ता कर ही रहे थे कि कलयुग, शूद्र के रूप मे वहां आया और उन दोनों को बहुत बुरी तरह से पीटने लगा । वह दोनों कलयुग की मार से अत्यंत आहत हो गए थे । महाराज परीक्षित से यह सब सहन नहीं हुआ और वे तत्काल उनकी रक्षा के लिए आ गए ।

महाराज परीक्षित ने उस बैल से पूछा, "आप के तीन पैर टूटे हुए है, आप केवल एक पैर पर चल पा रहे हो आपको देखकर मुझे अत्यंत कष्ट हो रहा है । बैल के रूप मे आप कोन है? कृपया आप अपना परिचय दीजिए? 

वह बैल मनुष्यों की भांति बोला, "महाराज परीक्षित धर्म की रक्षा करना आपके कुल की परंपरा रही है । जिनके सारथी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हो, वे पांडव सदैव धर्म के रक्षक रहे हैं ।  जिस युग में सत्य कर्मों का ह्रास होने लगता है वहां धर्म के तीन चरण टूट जाते है और केवल एक चरण शेष रह जाता है ।" 

बैल के मुख से ऐसे वाक्य सुनकर महाराज परीक्षित समझ गए कि बैल के रूप में साक्षात धर्म ही उनके समक्ष खड़ा है और पृथ्वी ने ही गौ माता का रूप धारण किया हुआ है । वह दोनों कलयुग के आगमन से अत्यंत आहत है ।

महाराज परीक्षित उन दोनों से बोले, मैं अभी कलयुग का वध कर आप दोनों को अभयदान देता हूं । उन्होंने कलयुग का वध करने के लिए ज्योंही अपनी खडग उठाई, उसी समय कलयुग भय से कांपते हुए उनकी शरण मे आ गया और अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगा ।

महाराज परीक्षित के समक्ष कलयुग गिड़गिड़ाते हुए
महाराज परीक्षित के समक्ष कलयुग गिड़गिड़ाते हुए 

महाराज परीक्षित द्वारा कलयुग के रहने के स्थान निश्चित करना 

कलयुग को अपने चरणों में गिरा हुए देख महाराज परीक्षित को उस पर दया आ गई और उन्होंने अपनी तलवार म्यान में रख ली । वह बोले, मेरे राज्य में धर्म और सत्य का वास है और तू अधर्म फैलाता है इसलिए इसी क्षण मेरा राज्य छोड़कर चले जाओ ।  तेरे यहां रहने से राजा और प्रजा दोनों के मन में कई प्रकार के पापों का उदय होने लगेगा । भ्रष्टाचार और व्याभिचार का बोलबाला हो जाएगा इसलिए, मेरे राज्य से चले जाओ ।

कलयुग बोला है राजन, समस्त संसार में मैं जहां भी जाने की सोचता हूं वहां आप मुझे धनुष बाण हाथ में लिए हुए दिखाई देते हो इसलिए आप ही मेरे रहने का स्थान निश्चित कर दीजिए ।

कलयुग की प्रार्थना सुनकर राजा परीक्षित को दया आ गई और उन्होंने कहां, जहां जुआ, भोग- विलास, मद्यपान और हिंसा होती है इन चार स्थानों पर असत्य, आसक्ति , ईर्ष्या और निर्दयता आदि अधर्म निवास करते हैं अतः इन चार स्थानों पर तुम रह सकते हो । कलयुग को इन चार स्थानों पर रहने से संतोष नहीं हुआ उसने महाराज परीक्षित से अपने लिए कुछ और स्थान मांगे । राजा परीक्षित बोले, जहां पर स्वर्ण और धन का संग्रह होता है, वहां तुम रह सकते हो ।

इस प्रकार कलयुग के रहने के पांच स्थान निश्चित हो गए । महाराज परीक्षित से वार्ता के उपरांत कलयुग उनके राज्य से चला गया । कलयुग के जाने के उपरांत धर्म पुनः अपने चारो चरण तपस्या, पवित्रता, दया और सत्य पर स्थित हो गया । पृथ्वी और धर्म को आश्वस्त करने के उपरांत महाराज परीक्षित अपनी राजधानी चले गए ।

ऋषि श्रृंगी का परीक्षित को श्राप देना 

महाराज परीक्षित का राज्य सुख समृद्धि से परिपूर्ण था । श्री कृष्ण के पृथ्वी लोक त्यागने के उपरांत संसार मे कलयुग का आगमन हो गया था परंतु वह परीक्षित के राज्य मे प्रवेश नहीं कर पाया था किंतु.. कलयुग का आगमन पूर्व निश्चित था । महाराज परीक्षित को शाषन करते हुए तीन सौ वर्ष व्यतीत हो चुके थे । 

नियति के अनुसार, एक बार महाराज परीक्षित राजकीय कोषागार मे गए वहां उन्होंने दुर्योधन का स्वर्ण मुकुट देखा जो उन्हें अति प्रिय लगा और उन्होंने वह मुकुट धारण कर लिया । उनके मुकुट धारण करते ही कलयुग उनके मस्तक पर सवार हो गया । महराज परीक्षित ने आखेट करने का निर्णय लिया और उन्होंने वन की और प्रस्थान किया । वन मे हिरणों के पीछे दौड़ते - दौड़ते वह अपनी सेना से बहुत दूर निकल गए । वह मार्ग भटक चुके थे । भूख और प्यास के मारे उनका बुरा हाल था ।

वन में उन्हें आश्रम एक दिखाई दिया, वह उस आश्रम में गए ।उस आश्रम मे ऋषि शमीक समाधि की अवस्था में लीन थे । प्यास के मारे राजा परीक्षित का बुरा हाल था । उन्हें उस आश्रम में ना कोई बैठने की जगह दिखाई दी और ना ही कोई जल का पात्र मिला । राजा ने स्वयं को बहुत अपमानित महसूस किया । राजा ने ऋषि के पास ही एक मरे हुए सर्प को देखा । उन्होंने अपने धनुष की नोक से उस मृत सर्प को उठाया और शमीक ऋषि के गले में डाल दिया ।

ऋषि शमीक के गले मे मृत सर्प डालते हुए महाराज परीक्षित
ऋषि शमीक के गले मे मृत सर्प डालते हुए महाराज परीक्षित 

उसी समय शमीक ऋषि का पुत्र श्रृंगी अपने मित्रों के साथ वहां आया और उसने राजा को अपने पिता के गले में सर्प डालते हुए देख लिया । राजा के इस कार्य से वह अत्यधिक क्रोधित हो गया । उसने महाराज परीक्षित को कंहा, ब्राह्मणों ने क्षत्रिय को अपनी रक्षा के लिए नियुक्त किया था परंतु आप क्षत्रिय होकर ब्राह्मणों का अपमान कर रहे हो, मैं आप को श्राप देता हूं, हे राजन, आज से ठीक सातवें दिन तक्षक सर्प के काटने से आपकी मृत्यु हो जाएगी । महाराज परीक्षित ने श्रृंगी ऋषि के वचनों पर कोई ध्यान नहीं दिया और वहां से चले गए । 

श्रीमद्भागवत महापुराण का प्राकट्य 

राजमहल में आकर महाराज परीक्षित को अपने कार्य पर अत्यंत पश्चाताप हुआ । उन्होंने तत्काल ही अपने पुत्र जन्मेजय का राज्याभिषेक कर दिया और सन्यासी का वेश धारण कर अपने पाप के प्रयाश्चित के लिए गंगा नदी के तट पर आमरण अनशन का व्रत लेकर बैठ गए ।

समस्त पृथ्वी के सम्राट को आमरण अनशन पर बैठा देख अनेक ऋषि और मुनि उनके दर्शनों के लिए वहां उपस्थित होने लगे । महाराज परीक्षित ने उन सब का अत्यंत आदर सत्कार किया । 

ईश्वर इच्छा से उसी समय भगवान वेदव्यास के सुपुत्र भगवान शुकदेव वहां पधारे । सभी ऋषि और मुनियों ने उनको दंडवत प्रणाम किया । भगवान शुकदेव की कांति अद्भुत थी । वह समस्त ऋषि - मुनियों के समुह मे तारों और नक्षत्रों से घिरे चंद्रमा की भांति सुशोभित हो रहे थे ।

परीक्षित ने उनकी चरण वंदना की और उनको उचित आसन दिया ।  महाराज परीक्षित ने उन से प्रश्न किया कि मृत्यु के समीप गए हुए प्राणी को किसका जप, तप, भजन, स्मरण और पाठ करना चाहिए जिससे व्यक्ति संसार के भव - बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सके । 

व्यासपीठ पर विराजमान शुकदेव जी
व्यासपीठ पर विराजमान शुकदेव जी 

शुकदेव जी बोले, "मैं संसार के पालनहार श्री हरि विष्णु को प्रणाम करता हूं । उनके दिव्य नामों का कीर्तन करने से बड़े से बड़ा पापी भी पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है । श्री हरि विष्णु की दिव्य कथाएं पापनाशिनी और मोक्षदायिनी है और संसार के भव बंधनों से पार कराने वाली है । उनकी दिव्य कथाओं का श्रवण और पाठन करने से व्यक्ति सांसारिक भव - बंधन से मुक्त हो मोक्ष प्राप्त करता है ।"

भगवान विष्णु
भगवान विष्णु 

महाराज परीक्षित श्री शुकदेव जी से बोले हे प्रभु," मैं आपके मुखारविंद से श्री हरि की दिव्य कथाओं का वर्णन सुनना चाहता हूं ।" उस समय श्री शुकदेव जी ने श्री हरि की अनेक दिव्य कथाओं का वर्णन महाराज परीक्षित के समक्ष किया । यही दिव्य कथाओं का संग्रह पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भागवत महापुराण के रूप से जाना जाता है ।

श्री शुकदेव के मुख से संसार के पालक श्री हरि की लीलाऔ और कथाओं का वर्णन सुनकर महाराज परीक्षित के जन्म - जन्मांतर के पाप नष्ट हो गए, उन्हें संसार की नश्वरता का बोध हुआ और ज्ञान की प्राप्ति हुई ।

श्रृंगी ऋषि के श्राप के अनुसार ठीक सातवें दिन तक्षक नाग वहां प्रकट हुआ । तक्षक नाग को देखते ही महाराज परीक्षित ने उन्हें प्रणाम किया और उसे अपनी मृत्यु के लिए आमंत्रित किया । जिस समय तक्षक नाग ने महाराज परीक्षित को डसा उस समय उन्होंने अपना संपूर्ण ध्यान श्री हरि के चरणों में लगाया और मोक्ष प्राप्त किया ।

जिस स्थान पर भगवान शुकदेव ने महात्मा परीक्षित को श्रीमद्भागवत महापुराण की दिव्य कथा का वर्णन किया था वह  भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के जिला मुजफ्फरनगर के समीप एक छोटा सा धाम शुक्रताल है । यहां एक प्राचीन वटवृक्ष है और माना जाता है कि इसी वटवृक्ष के नीचे शुकदेव जी ने महात्मा परीक्षित को कथा सुनाई थी । इस क्षेत्र को मंदिरों की नगरी कंहा जाता है । यहां अनेक भव्य मंदिर है जिनका दर्शन करने के लिए यात्रीगण दूर - दूर से पहुंचते हैं ।

पवित्र तीर्थ शुक्रताल
पवित्र तीर्थ शुक्रताल 

श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित महाराज परीक्षित की यह कथा अत्यंत मनोहारी है और भक्ति के मार्ग पर ले जाने वाली है । जो व्यक्ति प्रतिदिन श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठन और श्रवण करते हैं वह इस संसार के सभी सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष प्राप्त करते हैं। 

                              ।। इति श्री ।। 

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