महाराजा अंबरीष की कथा

महाराज अंबरीष की कथा

महाराजा अंबरीष जिनका नाम सुनते ही मन में पवित्रता का भाव जागृत हो जाता है । यह भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक थे । महाराजा अंबरीष की सहनशीलता और तपस्या के प्रभाव से दुर्वासा जैसे महाक्रोधी ऋषि भी उनके समक्ष नतमस्तक हो गए थे । महान ग्रंथ श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध के चतुर्थ अध्याय में राजा अंबरीष की दिव्य कथा का वर्णन है ।

श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण 

राजा अंबरीष की वंशावली 

आर्यव्रत सदैव से ही महान राजाओं की भूमि रहा है । समय-समय पर अनेक राजाओं ने भगवान की भक्ति कर देवत्व को प्राप्त किया है । प्राचीन काल में इक्ष्वाकु वंश में नाभाग नाम के बहुत ही धर्मात्मा राजा हुए । वह हर समय अपनी प्रजा की सेवा के लिए तत्पर रहते थे । वह राजा नभग के पुत्र थे और वैवस्वत मनु के पौत्र थे । वह हर समय धर्म के कार्य में लगे रहते थे ।


राजा अंबरीष
राजा अंबरीष 

उदार राजा अंबरीष

समय आने पर धर्मपरायण राजा नाभाग के यहां उन्हीं के समान अत्यंत तेजस्वी पुत्र अंबरीष का जन्म हुआ । अंबरीष   अपने पिता की ही तरह धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे ।  श्री हरि विष्णु की उन पर विशेष कृपा थी । वह संपूर्ण पृथ्वी के सम्राट थे । उनका राज्य सातों द्वीपों में फैला हुआ था । वह ऋषि-मुनियों का अत्यंत आदर करते थे और उनके मार्गदर्शन से ही अपना राज कार्य चलाते थे ।

उन्होंने प्रजा के हित के लिए सरस्वती नदी के तट पर अनेक यज्ञ किए थे । श्री हरि की भक्ति करना ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था । वह नित्य अपने हृदय में श्री विष्णु के अत्यंत दिव्य स्वरूप का दर्शन किया करते थे । उन्होंने अपने मन से सभी      प्रकार की आसक्तियों को त्याग दिया था ।

उनकी पत्नी भी उन्हीं के समान धर्मपरायण स्त्री थी । वह राजा अंबरीष के द्वारा किए गए धार्मिक अनुष्ठानों में अत्यंत रुचि लेती थी और सदैव उनके साथ ही रहती थी ।  

अंबरीष द्वारा एकादशी का व्रत करना 

एक बार राजा अंबरीष ने भगवान कृष्ण का प्रिय "द्वादशी प्रदान एकादशी व्रत" करने का निश्चय किया । हिंदू पंचांग के अनुसार प्रत्येक ग्यारहवें दिवस को एकादशी माना जाता है । एकादशी एक महीने में दो बार आती है । एकादशी का व्रत मार्गशीर्ष मास की कृष्ण पक्ष की उत्पन्ना नाम की एकादशी से शुरू होकर कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की देवोत्थान एकादशी पर संपूर्ण होता है । एकादशी का व्रत करने वाले साधक को एक वर्ष में चौबीस एकादशी के व्रत करने होते हैं ।

अंबरीष ने एकादशी का व्रत अत्यंत श्रद्धा से पूर्ण किया । व्रत  की समाप्ति के उपरांत कार्तिक मास में उन्होंने तीन दिन का उपवास किया । इसके उपरांत, प्रातः काल उन्होंने यमुना जी में स्नान किया और मधुबन में श्री हरि के दर्शन भी किए ।

महर्षि दुर्वासा का आगमन 

सबसे अंत में उन्होंने ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की । उसी समय देव योग से महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ उनके आश्रम में अतिथि के रुप में पधारे । महर्षि दुर्वासा को देखते ही राजा अंबरीष अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने महर्षि की चरण वंदना की ।

राजा अंबरीष महर्षि दुर्वासा की चरण वंदना करते हुए
राजा अंबरीष महर्षि दुर्वासा की चरण वंदना करते हुए 

राजा अंबरीष ने ऋषि दुर्वासा को भोजन का निमंत्रण दिया । ऋषि दुर्वासा ने स्नान के उपरांत भोजन करना स्वीकार किया और वह स्नान के लिए यमुना के तट पर चले गए ।

ऋषि दुर्वासा को गए हुए काफी समय व्यतीत हो चुका था और  द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गई थी । ब्राह्मणों के परामर्श से राजा अंबरीष ने अपने व्रत के पारण के लिए केवल जल ग्रहण किया और समय रहते द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत को पूर्ण किया । 

कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ राजा अंबरीष के आश्रम में पुनः पधारे । उन्हें भोजन कराने से पहले जल पी लेने पर वह अंबरीष पर अत्यंत क्रोधित हुए । उन्होंने राजा अंबरीष को अत्यंत कटु वाक्य कहे । महाराजा अंबरीष हाथ जोड़कर उनसे क्षमा प्रार्थना करते रहे ।

क्रोध मे ऋषि दुर्वासा
क्रोध मे ऋषि दुर्वासा 

ऋषि दुर्वासा का राक्षसी कृत्या उत्पन्न करना 

महर्षि दुर्वासा का क्रोध इतना बढ़ गया था कि उन्होंने राजा अंबरीष का वध करने के लिए अपनी तपस्या की शक्ति से एक भयानक राक्षसी कृत्या उत्पन्न की । वह राक्षसी राजा अंबरीष को देखते ही उनका वध करने के लिए दौड़ी । राक्षसी कृत्या को अपनी ओर आता देखकर राजा अंबरीष हाथ जोड़कर खड़े हो गए उन्होंने अपना मन श्री हरि के चरणों में लगा दिया और अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे ।

राक्षसी कृत्या
राक्षसी कृत्या

सुदर्शन चक्र का प्रकट होना 

इतनी कथा सुनाकर शुकदेव जी बोले हैं परीक्षित, जिसकी प्रीति भगवान के चरणों में लगी हो भला कोई उसका क्या अहित कर सकता है । उसी क्षण भगवान नारायण का अमोघ अस्त्र सुदर्शन चक्र वहां प्रकट हो गया । सुदर्शन चक्र ने अपनी प्रलयंकारी ज्वालाओ द्वारा कृत्या राक्षसी को भस्म कर दिया ।

सुदर्शन चक्र
सुदर्शन चक्र 

राक्षसी कृत्या का वध करने के उपरांत सुदर्शन चक्र महर्षि दुर्वासा की ओर बढ़ा । सुदर्शन चक्र को अपनी ओर आता देख महर्षि दुर्वासा अत्यंत भयभीत हो गए थे और अपनी रक्षा के लिए भागने लगे ।  

ऋषि दुर्वासा का त्रिदेव की शरण में जाना 

वह ब्रह्मदेव के पास अपनी रक्षा के लिए गए परंतु ब्रह्मदेव ने उनकी रक्षा करने में असमर्थता व्यक्त की । इसके उपरांत वह महादेव की शरण में गए । महादेव ने कंहा कि वह उनकी रक्षा नहीं कर सकते इसलिए जिनका यह चक्र है आप उन्हीं की शरण में जाइए ।

तदुपरांत महर्षि दुर्वासा विष्णु लोक में भगवान विष्णु की शरण में गए । उन्होंने भगवान विष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की । भगवान विष्णु ने भी उनकी रक्षा करने में असमर्थता जताई ।
श्री हरि बोले हे दुर्वासा, मैं तो भक्तों के अधीन हूं और सदैव उनके हृदय में वास करता हूं । जो भक्त मुझ में प्रीति रखकर केवल मेरा ही ध्यान करते हैं मैं उनकी रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहता हूं । 

श्री विष्णु
श्री विष्णु 

राजा अंबरीष के रूप में आपने मेरे निरपराध भक्त का अपमान किया है । इसीलिए सुदर्शन चक्र आप को भस्म करने के लिए प्रकट हुआ है । संपूर्ण सृष्टि में सुदर्शन चक्र से केवल आपको राजा अंबरीष ही बचा सकते हैंं । अतः आप उन्हीं की शरण में जाइए ।

सुदर्शन चक्र की प्रचंड अग्नि से दग्ध होते हुए महर्षि दुर्वासा राजा अंबरीष की शरण में पहुंचे । उन्होंने अंबरीष को देखते ही उनके चरण पकड़ लिए और उनसे सुदर्शन चक्र से अपनी रक्षा के लिए विनती करने लगे । 

सुदर्शन चक्र से भागते ऋषि दुर्वासा
सुदर्शन चक्र से भागते ऋषि दुर्वासा 

अंबरीष द्वारा सुदर्शन चक्र की स्तुति 

महाराज अंबरीष हाथ जोड़कर सुदर्शन चक्र से बोले, "हे परम तेजस्वी सुदर्शन चक्र, आप तो साक्षात् अग्नि स्वरूप है । आप ही परम सूर्यदेव हैं । हे हजार दातों वाले सुदर्शन चक्र में आपको नमन करता हूं । आप कृपया कर अपनी प्रलयंकारी ज्वालाओं को शांत कीजिए और महर्षि दुर्वासा को क्षमा कीजिए ।

हे सुदर्शन चक्र आप तो परमात्मा का तेज है । श्री नारायण धर्म की रक्षा के लिए ही आप का प्रयोग करते हैंं । संपूर्ण लोकों के रक्षक भी आप ही हैं । यदि मैंने मन, वचन और कर्म से श्री हरि विष्णु की सेवा की है कृपा कर आप शांत हो जाइए और महर्षि दुर्वासा को क्षमा कर दीजिए ।"

सुदर्शन चक्र
सुदर्शन चक्र 

महाराजा अंबरीष द्वारा विनती करने पर सुदर्शन चक्र ने अपनी प्रलयंकारी ज्वालाओं को शांत कर दिया और वहां से अंतर्ध्यान हो गए । महर्षि दुर्वासा राजा अंबरीष पर अत्यंत प्रसन्न हुए । दुर्वासा ने अंबरीष को अनेक आशीर्वाद दिए । इसके उपरांत महर्षि दुर्वासा वहां से ब्रह्मलोक को चले गए ।

राजा अंबरीष भी द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत पूर्ण करके अपनी राजधानी चले गए । समय आने पर उन्होंने अपने पुत्र को राजगद्दी देकर वन को प्रस्थान किया । अंबरीष, वन मे प्रभु के श्री चरणों का ध्यान करते हुए इस संसार से मुक्त हो गए ।  

शुकदेव जी बोले हे परीक्षित, जो व्यक्ति इस कथा का नित्य श्रवण करता है वह अंतकाल में मुक्त होकर वैकुण्ठ लोक को प्राप्त होता है ।
                                ।। इति श्री।। 
                    
                                 🙏🙏🙏
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