भगवान विष्णु |
अब मैं आपको प्रहलाद जी के पौत्र राजा बलि, की कथा का वर्णन करता हूंं, जिनकी वजह से असुरों की कीर्ति आकाश में उगे सूर्य के समान प्रकाशित होती है।
महाराज बलि के पूर्व जन्म का रहस्य
एक चोर किसी की स्वर्णमाला चुरा कर भाग रहा था और उसके पीछे राजा के सैनिक लगे थे। राजा के सैनिकों से पकड़े जाने के डर की वजह से वह चोर बहुत घबरा गया था। भागते हुए उसका पैर किसी पत्थर से टकराया और वह सिर के बल पृथ्वी पर गिर गया। सिर पर अत्याधिक चोट लगने के कारण वह चोर मरने के कगार पर पहुंच गया । मरते हुए उसने कहा," यह स्वर्णमाला महादेव को अर्पित और फिर उसके प्राणों ने उसके शरीर को छोड़ दिया।"
यम के दूत आकर उसकी आत्मा को लेकर यमराज के पास पहुंचे । यमराज ने चित्रगुप्त को आदेश दिया कि उसके कर्मों का लेखा जोखा बताया जाए । चित्रगुप्त ने बताया, कि इसने सारी जिंदगी बुरे कार्य किए हैं और मरते हुए एक अच्छा कार्य किया है। मरते हुुए, इसने एक स्वर्णमाला महादेव को अर्पित की है ।
यमराज जी ने उस आत्मा को आदेश सुनाया कि उसको काफी लंबे समय तक नर्क भोगना पड़ेगा परंतु महादेव जी को स्वर्ण माला अर्पित करने के कारण उसे दो घड़ी के लिए स्वर्ग का सिंहासन मिलेगा। यमराज उस आत्मा से बोले, अब तुम निश्चय करो पहले स्वर्ग भोगना चाहते हो या नर्क।
वह आत्मा बोली, लंबी अवधि नर्क में भोगने की बजाए पहले वह दो घड़ी अर्थार्त 48 क्षण ( मिनट) के लिए स्वर्ग के सिंहासन में बैठना पसंद करेगा।
उस आत्मा को स्वर्ग ले जाया गया और दो घड़ी के लिए स्वर्ग का राजा बना दिया गया। उस आत्मा ने विचार किया, कि मरते हुए महादेव को स्वर्ण माला अर्पित करने के कारण मैं दो घड़ी के लिए स्वर्ग का राजा बन गया हूं, तो क्यों ना मैं यह दो घड़ी भगवान की भक्ति में लगा दू।
यह निश्चय करके उसने सैनिकों को आज्ञा दी की तुलसी दल लाकर राज सिंहासन पर रख देे, और सारा स्वर्ग भगवान की भक्ति में लीन हो जाए। उसने पूर्ण श्रद्धा के साथ दो घड़ी तक भगवान की भक्ति की।
जब यम के दूत उसे लेने के लिए आए, तो उसी क्षण वहां पर श्री हरि विष्णु के दूत प्रकट हो गए। वह यम के दूतोंं से बोले, तुलसी दल को राज सिंहासन में रखने के कारण और पूर्ण श्रद्धा से भगवद भक्ति करने के कारण यह आत्मा नर्क का अधिकारी नहीं रहा है, इसलिए यह आत्मा पृथ्वी पर दोबारा जन्म लेगा।
महाराज बलि का जन्म
उस आत्मा ने असुर शिरोमणि प्रहलाद जी के वंश में जन्म लिया । उनके पिता का नाम महाबली विरोचन था । जन्म लेते ही उसने बहुत जोर से हुंकार भरी, इसलिए उसका नाम बलि रखा गया। बलि धीर-गंभीर और भगवान को मानने वाला बालक था । प्रह्लाद जी ने बलि को भगवान की अनेक कथाएं सुनाई और असुर कुल की शिक्षा देने के साथ-साथ उन्होंने बलि को ब्रह्मा, विष्णु और शिव की महिमा का भी ज्ञान दिया।
बलि ने ब्रह्मा जी और शिव की तपस्या करके उनसे यह वरदान लिया कि वह किसी भी देवता के द्वारा नहीं मारा जा सकेगा। वह इंद्रासन का अधिकारी बनेगा और असुर लोक की कीर्ति को अत्यंत उज्जवल करेगा।
राजा महाबली |
बलि को सर्वगुण संपन्न देखकर सब असुरों की सहमति से उसे असुर कुल का राजा बना दिया गया। बलि बहुत न्याय प्रिय और दूरदर्शी राजा था। त्रिलोक को जीतने के उद्देश्य से उसने अपने मंत्रियों के साथ स्वर्ग पर आक्रमण करने की योजना बनाई ।
वहीं दूसरी ओर स्वर्ग में राजा इंद्र से दुर्वासा ऋषि मार्ग में मिले और इंद्र ने उन्हें प्रणाम किया, जिससे प्रसन्न होकर, दुर्वासा ऋषि ने अपने गले की माला इंद्र को दे दी । इंद्र ने वहीं माला अपने हाथी के गले में डाल दी । उनके हाथी ने सूंड से पकड़कर वह माला पृथ्वी पर गिरा दी । इससे क्रोध में आकर दुर्वासा ऋषि ने इंद्र को श्राप दिया की वह श्री विहीन हो जाएगा ।
असुरों का स्वर्ग पर आक्रमण
बलि ने संपूर्ण विश्व के सभी असुरों को इकट्ठा किया और असुरों की एक बहुत बड़ी सेना लेकर स्वर्ग पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया । बाणासुर,शंबरासुर,महारथी बल, महारथी राहु, महाबली विप्रचिति और प्रहलाद और उसके पिता विरोचन और वृत्रासुर, कालनेमि और अनेक भयंकर राक्षस उसकी सेना मैं थे । यह सब ब्रह्मा जी और शिव के वरदान से अजय थे।
बलि ने अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ स्वर्ग लोक में आक्रमण कर दिया । यद्यपि स्वर्ग के सभी देवता बहुत पराक्रम से लड़े, परन्तु बलि के अनेक अजेय योद्धाओ और बलि और इंद्र के युद्ध में इंद्र की पराजय होने के कारण सभी देवताओं को युद्ध का मैदान छोड़ना पड़ा।
असुरों का स्वर्ग पर अधिकार
बलि का स्वर्ग के सिंहासन पर अधिकार हो गया और हारे हुए सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में श्रीर सागर गए।
श्री हरि बोले कि राक्षस बल में श्रेष्ठ है और देवता बुद्धि में, इसलिए आप सब देवता, असुरों को सागर मंथन के लिए सहमत करें क्योंकि सागर मंथन से जो अमृत निकलेगा उसे पीकर सब देवता अमर हो जाएंगे। श्री हरि बोले, यह कार्य ना अकेले असुर कर सकते हैं और ना ही देवता ।
तब इंद्र अपने प्रधान देवताओं को लेकर राक्षस राज बलि के पास गए और उन्हें सागर मंथन के बारे में बताया । इंद्र ने यह भी बताया कि सागर मंथन से जो अमृत निकलेगा उसे पीकर देवता और दानव सब अमर हो जाएंगे । राक्षसराज बलि इस प्रस्ताव को मान गए ।
सागर मंथन की कथा
सागर मंथन |
सागर मंथन दोबारा शुरू किया गया । देवता और राक्षस बहुत परिश्रम से सागर मथ रहे थे, तभी सागर में से अत्यंत भयानक कालकूट नाम का विष निकला, वह समस्त संसार को जलाने लगा । सारा संसार उस विष के प्रभाव से विचलित हो रहा था । श्री हरि ने कहा कि भगवान महादेव के अतिरिक्त इस विष को कोई ग्रहण नहीं कर सकता । प्रभु महादेव संसार के कल्याण के लिए सारा कालकूट विष पी गए । विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया, इसलिए उनको नीलकंठ भी कहा जाता हैं।
आठवीं बार सागर मथने से कार्तिक मास की अमावस्या को देवी महालक्ष्मी का अवतरण हुआ । यह दिवस सम्पूर्ण संसार मै दीपावली के रूप मैं मनाया जाता है । देवी लक्ष्मी ने श्री हरि विष्णु को अपने वर के रूप में स्वीकार किया ।
सागर को मथने का कार्य अनेक वर्षों तक चलता रहा ।
नोवी बार सागर मथने से
सागर को मथने से दसवीं वस्तु चंद्रमा प्रकट हुए जिसे महादेव ने अपने मस्तक पर धारण किया ।
जब 12वीं बार सागर मथा गया तो पांचजन्य नाम का शंख निकला, जिसे भगवान विष्णु ने ग्रहण किया ।
इसके उपरांत कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी कोधन्वंतरी जी अपने हाथों में अमृत का कलश लेकर सागर से निकले ।( यह दिवस धनतेरस केे रूप में मनाया जाता है । लोग इस दिन अपने घरों मैं कलश की स्थापना करते है।) उन्हें देखकर सभी असुर और देवता अमृत प्राप्त करने के लिए उनके पीछे दौड़े ।
भगवान धन्वंतरि |
देवों और असुरों के अमृत पकड़ने के प्रयास में अमृत की कुछ बूंदे पृथ्वी में चार जगह पर गिरी । अमृत की यह बूंदे पृथ्वी पर हरिद्वार, उज्जैन, प्रयागराज और नासिक में गिरी थी । यहां पर प्रत्येक 12 वर्ष के पश्चात कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। यह संसार का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है ।
मोहिनी अवतार
भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार |
मोहिनी सभी को अमृत देती हुईं |
उस स्त्री ने अपना नाम मोहिनी बताया, और उसने असुरों और देवताओं के लड़ने का कारण पूछा ।
अमृत के लिए देवताओं और असुरों के लड़ने का कारण जानकर मोहिनी ने दोनों पक्षों को अमृत पिलाने का आग्रह किया ।
मोहिनी से सब मोहित हो उठे |
जिसे दोनों पक्षों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । फिर मोहिनी ने असुरों और देवताओं को अलग-अलग पंक्ति में बिठा दिया । मोहनी देवताओं को तो अमृत पिला रही थी परंतु, असुरों को अपनी माया से साधारण जल पिला रही थी ।
यह देखकर सिंहिका का पुत्र राहु, देवता का भेष बनाकर सूर्य और चंद्र के बीच में आकर बैठ गया। अब तक मोहिनी सभी देवताओं को अमृत पिला चुकी थी । ज्योंही उसने देवता बने राहु के मुंह में अमृत डाला तभी उसे ज्ञात हो गया कि यह असुर है । श्री हरि ही मोहिनी के रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे उन्होंने उसी क्षण देवता बने हुए राहु का सर धड़ से अलग कर दिया । अमृत के प्रभाव की वजह से उस असुर का सर राहु और धड़ केतु के रूप में विभाजित हो गया । तब राहु ने प्रतिज्ञा ली कि वह पूर्णिमा मैं चंद्र को और अमावस्या में सूर्य को ग्रस्ता रहेगा ।
इसके उपरांत देवताओं और असुरों में युद्ध आरंभ हो गया परन्तु अब देवता अमर हो चुके थे, उन्होंने शीघ्र ही असुरों को पराजित कर स्वर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया ।
।। इति श्रीं ।।
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