भगवान ऋषभदेव का संक्षिप्त परिचय

भगवान ऋषभदेव की कथा

श्री हरि विष्णु ने पृथ्वी पर धर्म की रक्षा के लिए अनेक अवतार धारण किए हैं । पूर्व काल मे भगवान विष्णु ने भगवान ऋषभदेव जी के रूप में अवतार लेकर संसार को ज्ञान और तपस्या की शक्ति से परिचित कराया था ।

भगवान विष्णु
भगवान विष्णु 

भगवान ऋषभदेव को जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर माना जाता है। जैन धर्म मे भगवान ऋषभदेव की आदिनाथ भगवान के रूप में पूजा की जाती है । पवित्र पुराण श्रीमद्भागवत के पांचवें स्कंध के तृतीय अध्याय में भगवान ऋषभदेव की दिव्य कथा का वर्णन मिलता है ।

भगवान ऋषभदेव का वंश परिचय 

प्राचीन काल में प्रियव्रत नाम के बहुत ही महान राजा राज्य करते थे । उनका राज्य सातों द्वीपौ में फैला हुआ था । वह स्वयंभूव मनु के पुत्र थे । प्रियव्रत भगवान विष्णु के परम भक्त थे ।

उचित समय आने पर महाराज प्रियव्रत ने अपने योग्य पुत्र आग्निध्र को राजगद्दी दी और वन को प्रस्थान किया।आग्निध्र एक योग्य शासक थे । उन्होंने अप्सरा पूर्वचिति से विवाह किया और अनेक संतानों को जन्म दिया । आग्निध्र भी अपने योग्य पुत्र नाभि को राजगद्दी देकर वन को गमन कर गए ।

भगवान ऋषभदेव का जन्म 

राजा नाभि भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे । उनकी पत्नी महारानी मेरु देवी भी उन्हीं के समान भगवान विष्णु की अनन्य भक्त थी परंतु, उनकी कोई संतान नहीं थी । ब्राह्मणों की आज्ञा से राजा नाभि ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए दिव्य  यज्ञ किया । उन्होंने वह यज्ञ अत्यंत श्रद्धा से पूर्ण किया ।

यज्ञ करते हुए राजा नाभि
यज्ञ करते हुए राजा नाभि 

राजा नाभि के यज्ञ से प्रसन्न होकर श्री हरि विष्णु उस यज्ञशाला में प्रकट हुए । राजा नाभि और ब्राह्मणों ने श्री हरि विष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की । महारानी मेरु देवी और राजा नाभि ने भगवान विष्णु से उन्हीं के समान पुत्र होने की प्रार्थना की ।

श्री हरि विष्णु उनकी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने कंहा कि वह स्वयं उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे । समय आने पर राजा नाभि को प्रसन्न करने के लिए श्री भगवान ने महारानी मेरु देवी के गर्भ से दिगंबर सन्यासी और ब्रह्मवादी मुनिवरो का धर्म प्रकट करने के लिए जन्म लिया । उस बालक का दिव्य स्वरूप देखकर राजा नाभि और महारानी मेरु देवी अत्यंत प्रसन्न हुए ।

बाल रूप में भगवान ऋषभदेव
बाल रूप मे भगवान ऋषभदेव

उन्होंने उस दिव्य बालक का नाम ऋषभदेव रखा । भगवान ऋषभदेव समता, शांति और वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे । वह अपनी प्रजा मे अत्यंत लोकप्रिय थे । उनका बल, ऐश्वर्या, पराक्रम और शूरवीरता को देखकर समस्त प्रजाजनों को यह इच्छा होने लगी की अब पृथ्वी पर शासन युवराज ऋषभदेव को ही करना चाहिए ।

देवराज इंद्र का अभिमान को भंग करना 

भगवान ऋषभदेव का यश दिनों- दिन बढ़ता जा रहा था । उनकी ख्याति तीनों लोकों में गूंज रही थी । उनके यश से चिड़  कर देवराज इंद्र ने उनके राज्य में वर्षा करनी बंद कर दी । इंद्र के इस कार्य से राजा नाभि के राज्य पर कोई विपरित प्रभाव नहीं पड़ा । उचित समय आने पर भगवान ऋषभदेव ने अपनी सामर्थ्य से वर्षा करवा कर देवराज इंद्र के अभिमान को भंग कर दिया । इंद्र भगवान ऋषभदेव के स्वरूप को पहचान चुके थे, उन्होंने अपनी भूल के लिए उनसे क्षमा मांगी । 

देवराज इंद्र ने राजा नाभि से अपनी पुत्री जयंती और  ऋषभदेव के विवाह का प्रस्ताव रखा । राजा नाभि ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया । उन्होंने अत्यंत धूमधाम से  ऋषभदेव और जयंती का विवाह संपन्न कराया ।  धर्म ग्रंथो मे देवी जयंती को देवी सुमंगला के नाम से जाना जाता है ।  

ऋषभदेव जी, विवाह करते हुए
ऋषभदेव जी, विवाह करते हुए 

जब राजा नाभि ने देखा की उनका पुत्र सर्वगुण संपन्न है और राजकार्य चलाने मे सक्षम है तो उन्होंने ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर दिया और स्वयम अपनी पत्नी मेरु देवी के साथ भगवान का तप करने बद्रिकाश्रम चले गए ।

भगवान ऋषभदेव का राज्याभिषेक
भगवान ऋषभदेव का राज्याभिषेक 

गृहस्थ ऋषभदेव जी

भगवान ऋषभदेव देवी सुमंगला के साथ गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए 99 पुत्रों और एक पुत्री के पिता बने ।  उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था जो उन्हीं के सामान विलक्षण गुणों से युक्त थे ।

भगवान ऋषभदेव की दूसरी पत्नी का नाम सुनंदा था । देवी सुनंदा ने एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया । उनके पुत्र का नाम बाहुबली था जो अत्यंत शीलवान और ज्ञानी थे । उनके सभी पुत्र और पुत्रियां अत्यंत सेवा भाव से युक्त और धर्म के मार्ग पर चलने वाले थे ।

भगवान ऋषभदेव के उपदेश

एक बार भगवान ऋषभदेव अपने पुत्रों के साथ ब्रह्मवर्त देश गए, वहा उन्होंने ऋषियों की सभा में अपने पुत्रों को अनेक उपदेश दिए । ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों को उपदेश देते हुए कंहा कि मनुष्य के जीवन का लक्ष्य केवल अविनाशी परमात्मा को प्राप्त करना है इसलिए व्यक्ति को भौतिक सुखों से दूर रहकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सिद्दांतो का पालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करना चाहिए । 

उपदेश देते हुए भगवान ऋषभदेव
उपदेश देते हुए भगवान ऋषभदेव

केवल तप के द्वारा ही अपना अंतःकरण शुद्ध करके उस परम पवित्र परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए मनुष्य को अपना अंतःकरण शुद्ध करने के लिए दिव्य तप करने चाहिए । भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को आत्मा, परमात्मा और संसार से संबंधित अनेक उपदेश दिए । भगवान ऋषभदेव के मुख से निकले उपदेश "जिनवाणी" कहे जाते हैं । जैन धर्म ग्रंथों में "जिनवाणी" का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है ।

ऋषभदेव जी के राज्य में उनकी प्रजा अत्यंत संतुष्ट थी और उन्हीं की भाँति आचरण करती थी । वे अनर्थ परंपराओं का विरोध करने वाले स्वतंत्र चिंतक थे । उन्होंने अपनी प्रजा के हित के लिए अनेक यज्ञ किए और अनेक धार्मिक अनुष्ठानों को पूर्ण किया ।

भगवान ऋषभदेव का सन्यास ग्रहण करना 

संसार को नई परंपराओं का ज्ञान कराने के लिए उन्होंने अपने जेष्ठ पुत्र भरत को राजगद्दी देकर सन्यास ग्रहण कर लिया और  वन मे तप के लिए चले गए । वन में उन्होंने पूर्णतः दिगंबर रूप धारण कर लिया और तप करने के लिए एक वटवृक्ष के नीचे समाधिस्थ हो गए । यद्यपि वे पूर्णतः ब्रह्म ज्ञानी थे परंतु संसार को शिक्षा देने के लिए उन्होंने कठोर तप किया । उनकी कठोर तपस्या के प्रभाव से सातों सिद्धियां और नवनिधिया और उनके समक्ष हाथ बांधे खड़ी रहती थी ।

ध्यानमुद्रा मे भगवान ऋषभदेव
ध्यानमुद्रा मे भगवान ऋषभदेव

उन्होंने इन भौतिक सुखों की परवाह ना करते हुए केवल परमेश्वर में ही अपना ध्यान लगाया । उन्होंने तपस्या के साथ-साथ अत्यंत कठोर उपवास प्रारंभ कर दिया । वे उस वन में छह माह तक निराहार रहे और उसके उपरांत उन्होंने उस वन से हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया । हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस के हाथों से गन्ने का रस ग्रहण कर उन्होंने अपने व्रत को समाप्त किया । 

राजा श्रेयांस से आहार ग्रहण करते हुए भगवान ऋषभदेव
राजा श्रेयांस से आहार ग्रहण करते हुए भगवान ऋषभदेव

इसके उपरांत वह पुनः वन में आ गए और वट वृक्ष के नीचे तपस्या करने बैठ गए । उसी वट वृक्ष के नीचे उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई जिसे जैन धर्म मे "केवल ज्ञान" के नाम से जाना जाता है ।

भगवान ऋषभदेव
भगवान ऋषभदेव

ऋषभदेव जी का मोक्ष प्राप्त करना 

भगवान ऋषभदेव समस्त आर्यव्रत में विचरण करते हुए लोगों को ज्ञान प्रदान करते रहे । जब उन्होंने ने देखा की जनता उनके योग और तपस्या में व्यवधान उत्पन्न कर रही है तो वह पुनः वन में आ गए और एकांत में रहने लगे । भगवान ऋषभदेव के शरीर से दिव्य सुगंध उत्पन्न होती थी जिसकी गंध मीलों दूर तक जाती थी । उस दिव्य सुगंध के माध्यम से उनके दर्शनों के अभिलाषी व्यक्ति वन में भी उनके दर्शन करने के लिए आ जाते थे ।

समस्त संसार को तपस्या और उपवास की शिक्षा देने के उपरांत उन्होंने भगवान शिव के परम दिव्य धाम कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान किया । कैलाश पर्वत मे भगवान ऋषभदेव ने माघवदी चौदस के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में सूर्य उदय के समय पद्मासन मुद्रा में बैठकर अपने भौतिक शरीर को छोड़ा और मोक्ष प्राप्त किया ।

शुकदेव जी राजा परीक्षित को कहते हैं कि भगवान विष्णु का य़ह अवतार संसार मे राग और द्वेष से भरे हुए लोगों को मोक्ष का मार्ग दिखाने के लिए हुआ था । अतः मैं उनको कोटि-कोटि नमन करता हूं ।

भगवान ऋषभदेव
भगवान ऋषभदेव

भगवान ऋषभदेव का यह चरित्र समस्त पापों को हरने वाला  और मोक्ष के मार्ग पर ले जाने वाला है । जो मनुष्य प्रतिदिन उनके चरित्र को भक्ति भाव से सुनते और सुनाते हैं उन्हें सहज ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।

भगवान ऋषभदेव
भगवान ऋषभदेव

।। इति श्री।। 

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