यक्ष - युधिष्ठिर संवाद

यक्ष और युधिष्ठिर संवाद 


यक्ष
युधिष्ठिर संवाद श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित महाभारत के वन पर्व  के अध्याय 313 से लिया गया है ।

कथा

जब पांडव अपने 12 वर्ष के वनवास को पूर्ण करके एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए निकले तो वह अज्ञातवास की जगह ढूंढने के लिए जंगल - जंगल भटक रहे थे । उनके साथ उनकी पत्नी द्रौपदी भी थी । काफी समय जंगल में चलने के बाद उन सब को बहुत प्यास लग रही थी । 

जंगल में एक जगह रुक कर युधिष्ठिर ने सहदेव से कहां की पेड़ पर चढ़कर देखो कि कहीं आस-पास कोई जलाशय है । सहदेव ने पेड़ पर चढ़कर देखा तो थोड़ी ही दूर उसे एक जलाशय नजर आया । युधिष्ठिर ने सहदेव से कहा कि,"जाओ जल, ले आओ ।" 

जब सहदेव सरोवर के पास पहुंचा, उसे बहुत तेज प्यास लगी थी । वह जल पीने के लिए झुका तो उसे एक आवाज सुनाई दी । "ठहरो पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो फिर जल पीना" सहदेव ने उस आवाज को नजरअंदाज करके जल पी  लिया, परिणाम स्वरूप उसी समय वह मूर्छित हो गया ।ज

जब थोड़ी देर तक सहदेव वापस नहीं आया तो सबको चिंता हुई। फिर  युधिष्ठिर ने जल लेने के लिए नकुल को भेजा परंतु नकुल भी उस आवाज को नजरअंदाज करके जल को पी गया और मूर्छित हो गया । 

फिर युधिष्ठिर ने अर्जुन को भेजा । अपने दोनों भाइयों को मूर्छित देखकर अर्जुन बहुत क्रोधित हुआ और ललकारने  लगा । कौन है सामने आओ । अर्जुन की ललकार सुनकर यक्ष् प्रकट हो गया और बोला, अगर तुमने भी जल पीना है तो "पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो क्योंकि यह सरोवर मेरा है"। अर्जुन ने कहा  की जल और प्रकाश पर किसी का अधिकार नहीं होता यह कहकर अर्जुन ने भी सरोवर का जल पी लिया ।  परिणाम स्वरूप अर्जुन भी मूर्छित हो गया ।

फिर युधिष्ठिर ने भीम को भेजा । अपने तीनों भाइयों को मरा हुआ देखकर भीम बहुत क्रोधित हुआ और ललकारने लगा, किसने मेरे भाइयों का यह हाल किया है । यक्ष फिर से प्रकट हुआ और उसने  भीम से कहा "अगर तुम भी मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना जल  को पियोगे तो तुम्हारा भी यही हाल होगा" । भीम ने भी उसको नजरअंदाज किया और जल ग्रहण कर लिया । परिणाम स्वरूप भीम भी मूर्छित हो गया ।

फिर युधिष्ठिर द्रौपदी को जंगल मैं ही छोड़कर सरोवर के पास पहुंचा । उसने देखा, उसके चारों भाई मूर्छित पड़े हैं । युधिष्ठिर को यह देखकर बड़ा विस्मय हुआ । परंतु युधिष्ठिर को उनके चेहरे पर कोई विष का प्रभाव नजर नहीं आया । युधिष्ठिर के मन में आया कि शायद मामा शकुनि ने कोई प्रपंच ना रचा हो । यह सब सोचकर जब वह  जल पीने के लिए सरोवर में उतरा तो आवाज आई ।  ठहरो..पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दो फिर जल पीना ।
             
युधिष्ठिर ने पूछा आप कोन हो.. तब यक्ष देव प्रकट हुए और बोले कि यह सरोवर मेरा है तुम मेरे प्रश्नो का उत्तर दिये बिना इसका जल  नहीं पीं सकते ।

युधिष्ठिर ने कहा, आप प्रश्न पूछिए मैं प्रयत्न करता हूं ।


यक्ष :- पृथ्वी से भारी कौन है ? 

युधिष्ठिर:- पृथ्वी से भारी माता है ।

यक्ष: - आकाश से ऊंचा कौन है ? 
          
युधिष्ठिर: - आकाश से ऊंचा पिता है ।

यक्ष:- वह क्या है जिसकी गति पवन से भी तेज है? 
           
युधिष्ठिर:- मन की गति पवन से भी तेज है ।

यक्ष:- संख्या में तिनकों से अधिक क्या है ? 
          
युधिष्ठिर: - संख्या में तिनको से अधिक चिंता है ।

यक्ष: - मृत्यु के  समीप प्राणी का मित्र कौन है ? 

युधिष्ठिर:- दान मृत्यु के समीप प्राणी का मित्र है ।

यक्ष: - संसार को किस वस्तु ने ढक रखा है ? 

युधिष्ठिर: - अज्ञानता ने संसार को ढक रखा है ।

यक्ष: - मनुष्य का शत्रु कौन है ? 
            
युधिष्ठिर:-  क्रोध ही मनुष्य का शत्रु है ।

यक्ष :- धर्म, यश, स्वर्ग और सुख काआधार क्या है ?  

युधिष्ठिर:- दक्षता धर्म का मुख्य आधार है । दान यश का मुख्य आधार है । सत्य स्वर्ग का मुख्य आधार है । शीलता सुख का मुख्य आधार है ।

यक्ष: - आलस्य क्या है ? 

युधिष्ठिर: - धर्म ना करना ही आलस्य है ।

यक्ष : सुखी कोन है ? 

युधिष्ठिर: जो ऋणी नहीं है ।

यक्ष :- कोयले से भी अधिक काला क्या है ?   

युधिष्ठिर: कोयले से अधिक काला कलंक है ।   

यक्ष: लोक में सबसे श्रेष्ठ धर्म क्या है ? 

युधिष्ठिर:  दया लोक में सबसे श्रेष्ठ धर्म है ।

 यक्ष: किसके वश में रहने से शोक नहीं होता है ?             

युधिष्ठिर: मन के वश में रहने से शोक नहीं होता है ।

 यक्ष: लज्जा क्या है ? 

युधिष्ठिर: ना करने योग्य कार्य से दूर रहना ही लज्जा है 

यक्ष-: दया क्या है ? 

युधिष्ठिर:- सबके सुख की कामना करना ही दया है ।

यक्ष-: राष्ट्र की मृत्यु का कारण क्या होता है ? 

युधिष्ठिर:- अराजकता ही राष्ट्र की मृत्यु का कारण होता है।

यक्ष:- ब्राह्मण तत्व का प्रमाण क्या है ? कुल, चरित्र, शिक्षा या शास्त्र ज्ञान ? 

युधिष्ठिर:- ब्राह्मण तत्व का प्रमाण चरित्र होता है । क्योंकि एक चरित्रवान शुद्र उस ब्राह्मण से अच्छा है जो शास्त्रों का ज्ञाता तो है परंतु चरित्रवान नहीं है ।

 यक्ष-: धर्म क्या तर्क में है ? 

युधिष्ठिर:- नहीं ।

यक्ष: क्या धर्म ऋषियों की विचारधारा में है ? 

युधिष्ठिर:- नहीं क्योंकि एक ऋषि की विचारधारा दूसरे से नहीं मिलती उन में मतभेद होता है किसी ऋषि के पास संपूर्ण सत्य नहीं है ।
यक्ष-: संपूर्ण सत्य कहां है ? 

युधिष्ठिर:- व्यक्ति के हृदय की गुफाओं में ही संपूर्ण सत्य है ।

यक्ष-: संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? 

युधिष्ठिर:- मनुष्य यह जानता है कि मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है परंतु वह मन में यही सोचता है कि उसके जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु नहीं है । यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है ।

युधिष्ठिर से अपने प्रश्नों के उत्तर सुनकर वह यक्ष बहुत प्रसन्न हुआ और बोला, हे कुंती पुत्र युधिष्ठिर, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं ।
 मैं तुम्हारे चारों भाइयों में से किसी एक को जीवन दान देता हूंं ।तुम किस को जीवित करवाना चाहोगे । यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर बोले कि यक्ष किसी को जीवनदान नहीं दे सकते इसलिए आप अपने असली स्वरूप के मुझे दर्शन दीजिए । मैं अपने छोटे भाई नकुल को जीवित देखना चाहता हूं । तब यक्ष ने पूछा हे कुंती पुत्र युधिष्ठिर, तुमने भीम और अर्जुन जैसे भाइयों को छोड़कर नकुल को क्यों चुना ? तब युधिष्ठिर बोले कि कुंती पुत्रों में से मैं जीवित हूं और इसलिए मैं चाहता हूं कि माद्री मां का भी एक पुत्र जीवित रहे क्योंकि मैं माँ कुंती और माँ माद्री में कोई भेद नहीं समझता हू ।

यह बात सुनकर यक्ष बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि हे धर्मात्मा युधिष्ठिर, यदि तुम अपने किन्हीं दो भाइयों को जीवित देखना चाहो तो किन्हें जिवित देखना चाहोगे ? युधिष्ठिर बोले, तब मैं अपने छोटे भाई सहदेव को जीवित देखना चाहूँगा । यह सुनकर वह यक्ष अति प्रसन्न हुए, और उन्होंने कहा, कि मैं तुम्हारा पिता धर्मराज हूं और तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह रूप धरा है । मैं तुमसे अति प्रसन्न हूं और मैं तुम्हारे चारों भाइयों कोो जीवन दान देता हूं । यह कहकर धर्मराज युधिष्ठिर के चारों भाइयों को जीवन दान देकर और उन्हें बहुत से आशीर्वाद देकर  धर्मराज वहां से चले गए ।
               
 जिस स्थान पर युधिष्ठिर और यक्ष का संवाद हुआ था वह स्थान धारकुण्डी के समीप अखमरक्षण कुंड है । यह जगह चित्रकूट के समीप है । लोग यहां जाकर स्नान करते हैं और स्वयंम को तृप्त करते है । 
    
                                ।। इति श्रीं ।। 

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