ऋषि दधीचि का त्याग एवं वृत्रासुर का अंत

ऋषि दधीची तथा वृत्रासुर

भारतवर्ष ऋषियों और मुनियों की जन्मभूमि है । इस धरा पर अनेक दिव्य विभूतियों ने जन्म लिया है और अपने दिव्य चरणों के द्वारा इस भूमि को पवित्र किया है ।
पवित्र पुराण श्रीमद भागवत और शिव पुराण में महान ऋषि दधीचि की कथा आती है, जिन्होंने मानवता के कल्याण के लिए अपना शरीर देवराज इंद्र को दान कर दिया था और समस्त देवताओं को दुर्धर असुर वृत्रासुर के भय से मुक्त किया था । इस कथा का श्रीमदभागवत के छठे स्कंध के तीसरे अध्याय में वर्णन आता है ।  

गुरु बृहस्पति का इंद्र को त्यागना

एक बार देव गुरु बृहस्पति, इंद्र से मिलने के लिए उनकी राज्यसभा में गए । उस समय इंद्र और अन्य देवगण गंधर्वों के गान और अप्सराओं के नृत्य में इतना डूबे हुए थे कि उन्होंने गुरु बृहस्पति की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया । उस समय किसी भी देवता ने ना तो उन्हें प्रणाम किया और ना ही उन्हें उचित आसन दिया । 

देवराज इंद्र तथा अन्य अप्सराएँ
स्वर्ग में देवराज इंद्र 

देवताओं का यह कार्य देखकर गुरु बृहस्पति को अत्यंत अपमानित महसूस हुआ और वे उस राज्यसभा को त्याग कर चले गए । जब इंद्र को अपनी भूल का एहसास हुआ तो उन्हें अत्यंत पश्चाताप हुआ । इंद्र ने सोचा कि वह अपनी भूल के लिए गुरु बृहस्पति से क्षमा मांग लेंगे । 

देव गुरु बृहस्पति
देव गुरु बृहस्पति 

परंतु आचार्य बृहस्पति, इंद्र के इस व्यवहार से अत्यंत कुपित थे । उन्होंने स्वर्ग लोक को त्याग दिया और अपने योग बल की शक्ति से अंतर्ध्यान हो गए । देवराज इंद्र ने उनको ढूंढने के कई प्रयास किए परंतु देव गुरु बृहस्पति उन्हें कहीं नहीं मिले ।

असुरों का स्वर्ग पर आक्रमण

गुरु बृहस्पति के स्वर्ग पर ना होने से असुर अत्यंत प्रसन्न थे । उन्होंने दैत्य गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया । गुरु का मार्गदर्शन ना होने की वजह से देवता, असुरों के समक्ष युद्ध में टिक नहीं पाए और शीघ्र ही पराजित हो गए । स्वर्ग पर असुरों का अधिकार हो चुका था ।
 
युद्ध से हताश और हारे हुए देवता परमपिता ब्रह्मदेव की शरण में गए । उन्होंने ब्रह्मदेव की अनेक प्रकार से स्तुति की । ब्रह्मदेव बोले,"इंद्र तुमने बृहस्पति जैसे योग्य गुरु का अपमान करके बहुत बड़ी भूल की है । उसी भूल के परिणाम स्वरुप यह स्थिति तुम्हारे समक्ष उत्पन्न हुई है परंतु देव गुरु बृहस्पति तो अंतर्ध्यान हो चुके हैं, और वह स्वयम की इच्छा से ही तुम्हारे पास आएंगे । इसलिए तुम त्वष्टा के पुत्र ऋषि विश्वरूप के समक्ष जाओ और उन्हें अपना गुरु बनाने के लिए आग्रह करो । वही तुम्हारी समस्या का समाधान करेंगे ।"

इंद्र का विश्वरूप को अपना गुरु बनाना

इंद्र और अन्य सभी देवता ऋषि त्वष्टा के पुत्र महर्षि विश्वरूप की शरण में गए । आचार्य विश्वरूप उच्च कोटि के साधक थे । उनके तीन मुख थे । वह हर समय तपस्या में लीन रहते थे ।विश्वरूप, असुरों एवं देवताओं में समान रूप से लोकप्रिय थे । देवताओं ने उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की । देवताओं के आग्रह पर और नियति को प्रभावी जानकर उन्होंने देवताओं का गुरु बनना स्वीकार कर लिया ।

देवराज इन्द्र ऋषि विश्वरूप से प्राथना करते हुए
देवराज इन्द्र ऋषि विश्वरूप से प्राथना करते हुए 

आचार्य विश्वरूप ने इंद्र को पुनः स्वर्ग पर अधिकार दिलवाया । उन्होंने इंद्र को वैष्णवी विद्या का साक्षात्कार करवाया । वैष्णवी विद्या नारायण कवच के नाम से भी जानी जाती है । यह नारायण कवच विश्वरूप ने कठोर तपस्या से प्राप्त किया था । देवराज इंद्र ने स्वयं को नारायण में विलीन करके नारायण कवच प्राप्त किया और उससे प्राप्त ऊर्जा से ही उन्होंने असुरों को पराजित कर पुनः स्वर्ग पर अधिकार किया ।

इन्द्र द्वारा विश्वरूप का वध 

स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त करने के उपरांत भी देवराज इंद्र को विश्वरूप पर विश्वास नहीं था । आचार्य विश्वरूप की माता असुर कुल से थी । इसलिए जब भी वह यज्ञ करते थे तो देवताओं की आहुतियां के साथ-साथ अपने एक मुख से असुरों के लिए भी आहुतियां दिया करते थे ।

विश्वरूप के इस कार्य से कुपित होकर देवराज इंद्र ने उसके तीनों सिरो को काट दिया । विश्वरूप के वध से देवराज इंद्र को ब्रह्म हत्या का पाप लगा ।

ब्रह्महत्या का पाप देवराज इंद्र ने एक वर्ष तक झेला । इसके उपरांत उन्होंने उस पाप को चार भागों में विभाजित करके एक  भाग पृथ्वी को, एक भाग वृक्षों को, एक बात जल को, और एक भाग स्त्रियों को अर्पित कर दिया ।

त्वष्टा द्वारा भयंकर राक्षस वृत्रासुर को उत्पन्न करना

आचार्य विश्वरूप के वध से उसके पिता त्वष्टा अत्यंत क्रोधित हो गए थे । उन्होंने इंद्र का वध करने के लिए एक यज्ञ किया और उस यज्ञ से एक भयंकर राक्षस उत्पन्न किया । वह राक्षस अत्यंत शक्तिशाली था। सभी देवता उसके भय से स्वर्ग को छोड़कर भाग गए । 

यज्ञ से उत्पन्न असुर वृत्रासुर

स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त करने के उपरांत उस राक्षस ने देवताओं के सभी दिव्य शस्त्रों पर अपना अधिकार प्राप्त कर उन सब शस्त्रों को निगल लिया था । वह राक्षस इंद्र का वध करने के लिए तीनों लोकों में घूमता रहा । चारो ओर घूमने के कारण उसका नाम वृत्रासुर पड़ा ।

देवराज इंद्र का नारायण की शरण में जाना 

असुर वृत्रासुर की शक्ति से इंद्र और अन्य देवता अत्याधिक घबरा गए थे । वह सभी श्री हरि विष्णु की शरण में शीर सागर गए । उन्होंने भगवान विष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की । श्री हरि विष्णु देवताओं पर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा की असुर वृत्रासुर यज्ञ से उत्पन्न हुआ है इसलिए किसी अस्त्र और शस्त्र से उसका वध करना असंभव है ।

नारायण की शरण में देवराज इंद्र
नारायण की शरण में देवराज इंद्र 

श्री विष्णु बोले,"अगर ऋषि दधीचि अपने शरीर का दान कर देते हैं और केवल उनकी अस्थियों से बने अस्त्र से ही असुरराज वृत्रासुर का संहार किया जा सकता है ।" 

देवराज इंद्र का ऋषि दधीचि से उनका शरीर दान में मांगना

देवराज इंद्र ऋषि दधीचि के समक्ष उनके आश्रम में गए । ऋषि दधीचि महान शिव भक्त थे । अति संकोचवश देवराज इंद्र ने उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया । देवराज इंद्र ने उनसे कहा कि केवल उनकी अस्थियों से बने शस्त्र के द्वारा ही वृत्रासुर    का वध संभव है । अतः मैं लोक कल्याण के लिए आपसे आपका यह शरीर दान में मांगता हूं ।

ऋषि दधीचि की शरण में देवराज इंद्र
ऋषि दधीचि की शरण में देवराज इंद्र 

ऋषि दधीचि पूर्णतः ब्रह्म तत्व को प्राप्त कर चुके थे । उन्होंने  सहर्ष ही इंद्र का आमंत्रण स्वीकार कर लिया । उन्होंने लोक कल्याण के लिए योगाभ्यास के द्वारा अपने शरीर का त्याग कर दिया । 

ऋषि दधीचि योगाभ्यास के द्वारा शरीर त्यागते हुए
ऋषि दधीचि योगाभ्यास के द्वारा शरीर त्यागते हुए 

विश्वकर्मा द्वारा ऋषि दधीचि की अस्थियों से वज्र का निर्माण

ऋषि दधीचि के त्याग से देवराज इंद्र अत्यंत कृतार्थ हुए । देवताओं ने आसमान से पुष्पों की वर्षा की । देव शिल्पी विश्वकर्मा ने ऋषि दधीचि की अस्थियों से एक भयानक अस्त्र वज्र का निर्माण किया । उन्होंने उस वज्र में समस्त देवताओं की शक्तियों को भी समाहित किया । इसके उपरांत उन्होंने वह वज्र देवराज इंद्र को प्रदान किया ।

इंद्र और वृत्रासुर का युद्ध

वज्र प्राप्त करने के उपरांत देवराज इंद्र ने वृत्रासुर को युद्ध के लिए ललकारा । इंद्र और वृत्रासुर में भयानक युद्ध प्रारंभ हो गया । 

इंद्र से युद्ध करते समय वृत्रासुर के मन में भगवान नारायण के प्रति भक्ति जागृत हो गई । उसने बीच युद्ध में ही नारायण की अनेक प्रकार से स्तुति की । वह नारायण का गुणगान करते हुए देवराज इंद्र से भयंकर युद्ध करता रहा ।

असुर वृत्रासुर और देवराज इंद्र
असुर वृत्रासुर और देवराज इंद्र 

देवराज इंद्र ने वृत्रासुर पर अनेक दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया परंतु उन सभी को वृत्रासुर ने नष्ट कर दिया । वृत्रासुर ने एक अजगर का रूप बनाया और इंद्र को निगल लिया । यह देखकर समस्त देवता अत्याधिक घबरा गए । नारायण कवच के प्रभाव से देवराज इंद्र अजगर के मुख से बाहर आए ।

देवराज इंद्र और वृत्रासुर युद्ध करते हुए
देवराज इंद्र और वृत्रासुर युद्ध करते हुए 

इंद्र और वृत्रासुर में अत्यंत भयानक और विस्मयकारी युद्ध हुआ । देवराज इंद्र ने वज्र से वृत्रासुर की दोनों भुजाएं काट दी । इंद्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर का गला काटकर उसका अंत कर दिया ।

वज्र के साथ देवराज इंद्र
वज्र के साथ देवराज इंद्र 

नारायण के पार्षद वृत्रासुर के सूक्ष्म शरीर को लेने के लिए आए । वृत्रासुर अपने सुक्ष्म शरीर के साथ उनके दिव्य रथ पर बैठकर नारायण लोक को चला गया ।

देवराज इंद्र पर ब्रह्म हत्या का पाप लगना 

ब्राह्मण त्वष्टा द्वारा यज्ञ से उत्पन्न होने के कारण वृत्रासुर उसका पुत्र था । वृत्रासुर के वध से इंद्र पर एक और ब्रह्म हत्या का पाप लग गया । ब्रह्म हत्या के पाप के कारण देवराज इंद्र अत्यंत बेचैन रहने लगे थे । उनका मन हर समय भय और किसी  अनिष्ट की आशंका से भरा रहता था ।

वृत्रासुर का वध करने के उपरांत इंद्र इतने हताश हो गए थे कि वह दिव्य मानसरोवर झील में जाकर छुप गए । वह अनेक वर्षों तक उस झील के भीतर रहे ।

मानसरोवर झील में छिपे देवराज इन्द्र
मानसरोवर झील में छिपे देवराज इन्द्र 

देवी लक्ष्मी नेेे देवराज इंद्र को इस पाप से मुक्त कराने में सहायता की । महादेव ने उनके इस पाप को निष्फल किया । तत्पश्चात स्वर्ग के ब्राह्मणों ने देवराज इंद्र से अश्वमेध यज्ञ करवाया । उस यज्ञ के पुण्य प्रभाव से देवराज इंद्र  के मन से भय का नाश हुआ और उनका समस्त पाप निकल गया । 

अश्वमेघ यज्ञ
अश्वमेघ यज्ञ 

इस प्रकार देवराज इंद्र ब्राह्मण हत्या के पाप से मुक्त हुए । इंद्र के पुण्य उदय होने से देव गुरु बृहस्पति ने उन्हें क्षमा कर दिया और पुनः उनका गुरु बनना स्वीकार किया ।

शुकदेव जी बोलेे,"हे परीक्षितवृत्रासुर वध की यह कथा अत्यंत दिव्य है । इस दिव्य कथा का वर्णन करने से वक्ता और श्रोता दोनों के मन में असीम शांति का अनुभव होता है ।"
        
                                ।। इति श्री ।। 
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