संसार के पालनहार भगवान विष्णु की माया अद्भुत है। उनकी त्रिगुणमयी माया समस्त संसार में व्याप्त है। भगवान विष्णु लीलाधर है, वह संसार के परमार्थ के लिए नित्य नई लीला रचते हैं और उस लीला के द्वारा समस्त संसार में ज्ञान और भक्ति का दीप प्रज्वलित करते हैं ।
परम पिता
ब्रह्मा जी के पुत्र ऋषि
कश्यप की अनेक पत्नियां थी। उनकी पत्नी
आदिति से समस्त देवता उत्पन्न हुए थे। परंतु उनकी दूसरी पत्नी
दिति ने अनेक राक्षसों को जन्म दिया था। सृष्टि के आरंभ के समय में
दिति ने दो महापराक्रमी और बलशाली दैत्यो को जन्म दिया था, जिनका वध करने के लिए स्वयं भगवान
विष्णु ने
वाराह और
नरसिंह अवतार लिया था।
एक पिता के पुत्र होने के उपरांत भी देवताओं और दानवों में भयंकर शत्रुता थी। त्रिदेव ने देवताओं के लिए स्वर्ग का और दानवों के लिए पाताल का निर्माण किया था। देवताओं को स्वर्ग मिलने से दानव अत्याधिक क्षुब्ध थे। क्रोध में आकर दैत्यराज हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को उसकी धुरी से हटा दिया तब श्रीहरि विष्णु ने वाराह अवतार लिया था और हिरण्याक्ष का वध कर पृथ्वी को उसकी धुरी पर पुनः स्थापित किया था । हिरण्यकश्यप का ब्रह्मदेव की तपस्या करना
हिरण्याक्ष के वध के उपरांत दैत्यराज हिरण्यकश्यप अत्यंत रोष से भर गया था। वह पालनहार श्रीहरि विष्णु को अपना शत्रु समझता था। समस्त संसार पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से उसने ब्रह्मदेव की तपस्या करने का निश्चय किया।
वह भगवान ब्रह्मदेव की कठोर तपस्या करने लगा। उसने निराहार रहकर और एक पैर पर खड़े रहकर ब्रह्मदेव की कठोर तपस्या की। उसकी कठोर तपस्या से देवराज इंद्र का सिंहासन भी डोलने लगा। देवराज इंद्र ने उसकी तपस्या भंग करने के कई प्रयास किए परंतु वह सफल ना हो सके। देवराज इंद्र उसकी तपस्या से अत्यंत भयभीत थे उन्होंने अग्नि देव को हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु का वध करने की आज्ञा दी ।
भक्त शिरोमणि प्रह्लाद का जन्म
अनेक प्रयत्न करने के उपरांत भी अग्निदेव देवी कयाधु का वध नहीं कर सके और हार कर पुनः इंद्रदेव के पास आ गए। इंद्रदेव ने हिरण्यकश्यप की गर्भवती पत्नी कयाधु का अपहरण कर लिया और उसे अपने साथ ले गए ।
इंद्र तो देवी कयाधु का वध करना चाहते थे किंतु मार्ग में देवराज इंद्र को देवर्षि नारद मिले और नारद जी ने उन्हें समझाया कि भविष्य में क्या होने वाला है यह कोई नहीं जानता इसलिए आप देवी कयाधु को मुक्त कर दो । देवर्षि नारद की बात मानकर देवराज इंद्र ने देवि कयाधु को मुक्त कर दिया ।
देवर्षि नारद देवी कयाधु को लेकर नारद लोक पहुंचे। देवी कयाधु वहां का वातावरण देखकर मंत्रमुग्ध हो गई। वहां का वातावरण अत्यंत सात्विक था। वहा समस्त और श्रीहरि विष्णु के मंत्रों का उच्चारण हो रहा था। देवर्षि नारद ने देवी कयाधु को वहां कुछ समय व्यतीत करने को कहा। कुछ समय के उपरांत उस सात्विक वातावरण में देवि कयाधु ने दैत्यराज हिरण्यकश्यप के पुत्र को जन्म दिया ।
उस बालक ने मुस्कुराते हुए जन्म लिया था इसलिए उसका नाम प्रहलाद रखा गया। प्रहलाद देवर्षि नारद के संरक्षण में रहता था और नारद जी ने उसके मन में भगवान विष्णु की भक्ति स्थापित कर दी थी । वह हर समय भगवान विष्णु की भक्ति में ही लीन रहता था ।
हिरण्यकश्यप का ब्रह्मदेव से वरदान प्राप्त करना
हिरण्यकश्यप को ब्रह्मदेव की तपस्या करते हुए अनेक वर्ष व्यतीत हो चुके थे । उसने अपनी इंद्रियों का दमन करके तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए ब्रह्मदेव की कठोर तपस्या की थी। ब्रह्मदेव उसकी तपस्या से अत्याधिक प्रसन्न थे। ब्रह्मदेव हिरण्यकश्यप के समक्ष प्रकट हुए और उसे मनोवांछित वर मांगने को कहा ।
हिरण्यकश्यप ब्रह्मदेव से हाथ जोड़कर बोला, देवता, यक्ष, गंधर्व, राक्षस, मानव और आप की बनाई हुई सृष्टि का कोई भी प्राणी मेरा वध ना कर सके। ना मैं दिन में मरू और ना ही रात में, ना मैं किसी अस्त्र से मरू और ना शस्त्र से, ना मैं आकाश में मरू और ना ही पृथ्वी पर, कोई भी ऋषि अथवा मुनि मुझे श्राप ना दे सके, ना मैं सूखे से मरू और ना ही गीले से, कोई भी दूसरा आयुध मेरा वध ना कर सके, साल के 12 महीनों में भी कोई मुझे ना मार सके, ना मैं भीतर मरू और ना ही बाहर, उस दैत्यराज ने अपनी रक्षा के लिए परम पिता ब्रह्मदेव से एक ही वरदान के माध्यम से अनेक वरदान मांगे। ब्रह्मदेव ने उस दैत्यराज को मनोइक्षित वर दिया ।
वरदान प्राप्त कर हिरण्यकश्यप अत्याधिक निरंकुश हो गया था। उसने शीघ्र ही स्वर्ग लोक, गंधर्व लोक, यक्ष लोक और पृथ्वी लोक पर अपना अधिकार कर लिया। त्रिलोक पर अधिकार करने के उपरांत भी वह शांत नहीं बैठा उसने भगवान विष्णु की जगह स्वयं की पूजा करवाना आरंभ कर दिया था। जो भी व्यक्ति उसका आदेश नहीं मानता था वह उसे मृत्युदंड देता था। उस काल में लोग उसकी भगवान के रूप में पूजा करने लगे थे।
प्रह्लाद का आगमन
हिरण्यकश्यप ने अपनी पत्नी और पुत्र की सकुशलता का समाचार पाकर उन्हें अपने महल में बुलवा लिया। वह अपनी पत्नी और पुत्र से अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक मिला। दैत्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को गुरुकुल में भेज दिया।
गुरुकुल के शिक्षक अपने शिष्यों को राक्षसी विद्या का पाठ पढ़ाते थे। वह शिक्षक इस बात का भी जोर देते थे कि दैत्यराज हिरण्यकश्यप ही सर्वश्रेष्ठ है और इस जगत का एकमात्र पालनहार है। प्रह्लाद ने उन्हें बताया कि इस जगत के पालनहार श्री हरि विष्णु हैै और हमे उन्हीं की उपासना करनी चाहिए।बालक प्रह्लाद ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए अपने गुरुओं को अनेक तर्क दिए। प्रहलाद के गुरु उसके तर्क से अत्यंत प्रभावित हुए परंतु हिरण्यकश्यप के भय की वजह से उन्होंने कुछ नहीं कहा ।
हिरण्यकश्यप का अत्याचार
यह सूचना पाकर हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने आचार्यों के सहित प्रह्लाद को अपने पास बुलवाया। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को यह समझाने का प्रयास किया कि विष्णु उनका शत्रु है इसलिए उसको विष्णु की स्तुति ना करके हिरण्यकश्यप की स्तुति करनी चाहिए क्योंकि इस जगत का वही एकमात्र भगवान है।
प्रहलाद अपने पिता से बहुत प्रेमपूर्वक बोले, जगत के पालनहार केवल श्री हरि विष्णु ही है और मुझे, आपको और समस्त संसार को उनकी ही स्तुति करनी चाहिए। पहलाद की बात सुनकर हिरण्यकश्यप क्रोध से भर गया और बोला कि अगर तुमने विष्णु भक्ति नहीं छोड़ी तो मैं तुम्हारा वध कर दूंगा। पहलाद अपने पिता से बोले, मारने वाला और बचाने वाला केवल ईश्वर है यह कहकर वह श्रीहरि के पवित्र मंत्रों का उच्चारण करने लगे।
हिरण्यकश्यप प्रहलाद पर अत्यंत कुपित था उसने अपने सैनिकों को प्रह्लाद का वध करने की आज्ञा दी। उसके सैनिकों ने प्रह्लाद पर खडग, गदा, और मूसल से कई प्रहार किए परंतु वह प्रहलाद का अंश मात्र भी अनिष्ट नहीं कर पाए। पहलाद को निरंतर विष्णु मंत्र का उच्चारण करता देख हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हो गया था। उसने सैनिकों को आज्ञा दी की वह प्रहलाद को पहाड़ से नीचे गिरा कर मार दे। जब सैनिकों ने प्रहलाद को पहाड़ से नीचे गिराया तो वह हरि मंत्र का उच्चारण करते हुए सकुशल उठ गया ।
हिरण्यकश्यप किसी भी मूल्य पर पहलाद के मन से हरि भक्ति हटाना चाहता था परंतु वह सफल नहीं हो सका। इसलिए उसने प्रहलाद का वध करने के कई प्रयास किए। उसने प्रह्लाद को सर्पों से भरे हुए पिंजरे में रखवाया, समुद्र में डुबोकर मारना चाहा, और अन्य कई प्रकार के कष्ट दिए जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हो जाए। परंतु प्रहलाद तो श्रीहरि विष्णु की शरण में थे वह हिरण्यकश्यप के हर आघात से सकुशल बच गए ।
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भक्त प्रह्लाद |
भयंकर राक्षसी कृत्या
हिरण्यकश्यप अत्यंत विचलित हो गया था उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पुत्र को आज्ञा दी कि वह प्रहलाद का वध करने के लिए यज्ञ से राक्षसी कृत्या उत्पन्न करें। यज्ञ से भयंकर राक्षसी कृत्या उत्पन्न हुई और वह प्रहलाद को मारने दोड़ी । जब राक्षसी कृत्या भी प्रहलाद का वध नहीं कर पाई तो उसने अपने आह्वान करने वाले पर शक्ति प्रहार किया और स्वयं भी नष्ट हो गई। अपने गुरु को अग्नि में जलता देख दयालु प्रह्लाद ने अनेक प्रकार से भगवान विष्णु की स्तुति की ओर उन्हें बचाने की प्रार्थना की। प्रहलाद की प्रार्थना के प्रभाव से उसके गुरु को जीवन दान मिला ।
होलिका का आगमन
हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका नाम होलीका था । उसको ब्रह्मदेव से वरदान था कि उसे अग्नि जला नहीं सकती। वह हिरण्यकश्यप से बोली, वह एक अग्निकुंड तैयार करवाएं जिसमें वह प्रहलाद को लेकर बैठ जाएगी । उन्होंने पहलाद के अग्निस्नान के लिए फागुन मास की पूर्णिमा का दिन निर्धारित किया । फागुन मास की पूर्णिमा को संध्या के समय होलीका बालक प्रहलाद को लेकर अग्निकुंड में बैठ गई ।
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प्रह्लाद और होलिका |
ब्रह्मदेव से मिले हुए वरदान का अनुचित प्रयोग करने के कारण होलीका अग्निकुंड में जलकर स्वाह हो गई और प्रह्लाद श्री हरि के नाम का उच्चारण करता हुआ उस अग्निकुंड से बाहर आ गया। यह दिवस प्रत्येक फागुन मास की पूर्णिमा को होलिका दहन के रूप में मनाया जाता है। लोग अपनी बुराइयां अग्निकुंड में अर्पित करते हैं और अग्नि देव से सुख समृद्धि की कामना करते हैं ।
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होलिका दहन |
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होलिका दहन |
होलिका की मृत्यु के उपरांत हिरण्यकश्यप अत्यंत भयभीत हो गया था। उसने प्रहलाद को पुनः गुरुकुल भेज दिया । गुरुकुल में प्रहलाद समस्त छात्रों को हरि नाम की शिक्षा देने लगे। गुरुकुल के समस्त शिष्य भगवान विष्णु की भक्ति में लीन हो चुके थे ।
नरसिंह अवतार
पहलाद के कार्य से हिरण्यकश्यप अत्यंत चिंतित था। उसने प्रहलाद को अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि तुमने गुरुकुल में अब तक क्या शिक्षा प्राप्त की है ।
पहलाद जी बोले, संसार के पालनहार श्रीहरि विष्णु सर्वत्र व्याप्त है। वह इस जगत के कण-कण में है। आपको अपना अभिमान त्याग कर उन्हीं की शरण में जाना चाहिए। प्रहलाद के यह वाक्य सुनकर हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हो गया और एक स्तंभ की ओर संकेत करके बोलाा, अगर वह तेरा विष्णु सर्वत्र व्याप्त है और संसार के कण-कण में है तो क्या वह स्तंभ के अंदर भी हैं ?
हिरण्यकश्यप प्रहलाद से बोला, जल्दी बता नहीं तो अपनी गदा से मैं तेरा वध कर दूंगा। वह आवेश में आकर वह अपनी गदा से उस स्तंभ को ही पीटने लगा ।
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हिरण्याकश्यप |
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भक्त प्रहलाद और भगवान नरसिम्हा
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अचानक वह स्तंभ दो भागों में बट गया और उसमें से सिंह के मुख के समान और मनुष्य का शरीर धारण किए हुए श्रीहरि
विष्णु भगवान
नरसिंह के रूप में अत्यंत क्रोधित अवस्था में भयंकर गर्जना करते हुए प्रकट हुए ।
हिरण्यकश्यप उन्हें देखकर अत्यंत भयभीत हो गया था। भगवान नरसिंह हिरण्यकश्यप को महल के प्रवेशद्वाार ले गए और वही द्वार के बीच मैं अपनी जांघों पर उसे लिटा दिया और अपने पेने नखो से उसके उधर को फाड़कर उसका वध कर दिया ।
हिरण्यकश्यप के वध के उपरांत भी भगवान नरसिंह अत्यंत क्रोधित थे। वह अपनी क्रोधाग्नि से समस्त संसार का नाश कर देना चाहते थे। तब देवी लक्ष्मी ने प्रह्लाद जी को भगवान नरसिंह के पास भेजा। प्रहलाद को देखते ही भगवान नरसिंह अत्यंत स्नेहपूर्वक उनसे मिले और उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया। प्रहलाद को अनेक वरदान देकर भगवान नरसिंह देवी लक्ष्मी के साथ वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए ।
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भगवान नरसिम्हा |
भगवान नरसिंह ने ब्रह्मदेव के दिए हुए सभी वरदानो का मान रखते हुए हिरण्यकश्यप का वध किया था। हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए उन्होंने पुरुषोत्तम नाम का एक नया मास बनाया जो अधिकमास के नाम से भी प्रचलित है । इस मास में किए गए यज्ञ, दान आदि सात्विक कार्यो का अत्याधिक मह्त्व है । भक्त प्रहलाद की यह कथा कहने और सुनने वाले के मन को अत्यंत शांति प्रदान करती है ।
।। इति श्रीं ।।
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