कृष्ण महादेव संग्राम और बाणासुर (भाग - 1)

मनुष्य के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब उसे अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने मन के विपरित जाना पड़ता है।
ऐसा ही प्रसंग आदि ग्रंथ महाभारत  के अंतिम पर्व हरिवंश पुराण मैं आता है जब अपने भक्त बाणासुर को बचाने के लिए महादेव श्री कृष्ण के समक्ष खड़े हो गए थे ।   

बाणासुर का महादेव की तपस्या करना 

महाबलशाली बाणासुर त्रिलोक विजेता महाराजा बली के सौ पुत्रों में जेष्ठ पुत्र था, वह अत्यंत पराक्रमी शूरवीर और सहस्त्र भुुजाओ से युक्त था। 

एक बार जब उसने महान कार्तिकेय जी के दिव्य शरीर को देखा तो उसे बहुत विस्मय हुआ और उस समय उसके मन में महादेव की दुष्कर तपस्या करने का विचार आया । उस का उद्देश्य यही था कि किसी तरह महादेव उसे पुत्र रूप में स्वीकार कर ले । 




उसने महादेव की कठोर तपस्या की । समय आने पर महादेव उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा, बाणासुर बोला कि मेरी इच्छा है कि आप और मां पार्वती मुझे पुत्र रूप में स्वीकार करें । 

तब महादेव जी बोले हे बलवान बाणासुर मैं तुम्हें अपने पुत्र रूप में स्वीकार करता हूं मेरा और कार्तिकेय का संरक्षण सदैव तुम्हें मिलता रहेगा । तब कार्तिकेय जी ने उसे अग्नि के तुल्य एक तेजस्वी ध्वज और अपने तेज से प्रकाशित एक मयूर, वाहन रूप में बाणासुर को प्रदान किया। 




महादेव से वरदान पाकर उस दुर्धर असुर ने शोणित नाम का नगर बसाया और कार्तिकेय जी से प्राप्त दिव्य पताका वहां लगा दी । महादेव जी से वरदान पाकर वह असुर अत्यंत स्वच्छंद हो गया और हर एक से युद्ध की कामना करने लगा । उसने देवताओं, यक्ष और गंधर्वों को कई बार युद्ध में पराजित किया । महादेव जी के संरक्षण के कारण देवता उसे भयभीत रहने लगे ।

बाणासुर का घमंड 

 एक बार वह बल के मद में चूर होकर महादेव के पास कैलाश पर्वत गया और बोला, मेरा मन सदैव युद्ध में ही लगा रहता है और मैं देवताओं को भी कई बार परास्त कर चुका हूंं । इसलिए मैं एक ऐसे बलशाली शत्रुओं की कामना करता हूं जो मेरे सामने युद्ध में ठहर सके । तब शूलपानी महादेव हंसकर बोले कि हे बाणासुर, समय आने पर तुम्हें ऐसा ही अतुल्य और महान युद्ध प्राप्त होगा । महादेव बोले, जब कार्तिकेय के द्वारा दिया हुआ दिव्य ध्वज खण्डित होकर गिर जाएगा तब तुम्हें युद्ध प्राप्त होगा ।

महादेव जी से ऐसे वाक्य सुनकर और उनको अपनी हजार बुझाओ से नमस्कार करता हुआ बाणासुर प्रसन्न मन से शोणितपुर चला गया ।



शोणितपुर में आकर उसने जब यह बात अपने सेनापति कुंभभांड को बताई तो कुंभभांड बहुत चिंता में पड़ गया । वह समझ गया कि अब बाणासुर का विनाश काल आने वाला है । उसने बाणासुर को समझाने का प्रयत्न किया परंतु बल के मद में चूर बाणासुर ने उसकी एक ना सुनी ।

उषा और अनिरुद्ध की कथा 

बाणासुर की एक अत्यंत रूपवती कन्या थी जिसका नाम उषा थाा । वह उषा से बहुत स्नेह रखता था । एक बार राज कुमारी उषा अपनी सखियों के साथ गंगा विहार करने गई, वहां पर पार्वती के सहित महादेव भी पधारे हुए थे । महादेव और पार्वती जी और उनके गणों को क्रीड़ा में मगन देखकर उषा बहुत प्रसन्न हो रही थी और अपने मन में अपने होने वाले पति की कामना कर रही थी । तब देवी पार्वती ने उषा से कहाा कि  आने वाली वैशाख मास की द्वादशी को जो पुरुष तुम्हारे सपने में आएगा वही भविष्य में तुम्हारा पति होगा ।



शोणितपुर में आने के बाद राजकुमारी उषा प्राया गुमसुम सी रहने लगी । वह दिन - रात अपने होने वाले पति के बारे में सोचती रहती । इससे उसका खाना पीना भी बहुत कम हो गया था और वह बहुत कमजोर सी प्रतीत होने लगी थी । उसकी मां ने जब उसे राज वैद्य को दिखाया तो राज वैद्य ने कहा, कि थकावट के कारण ऐसा हो रहा है ।

समय आने पर वैशाख मास द्वादशी के शुक्ल पक्ष की रात को पार्वती जी के कथन के अनुसार राज कुमारी उषा ने सपने में एक राजकुमार के दर्शन किए । वह कमल नेत्र वाला और बलिष्ठ भुजाओं वाला बहुत सुंदर राजकुमार था । जब राजकुमारी सपने से जागी तो उस राजकुमार को वहां ना पाकर वह बहुत दुखी हुई और उसको पाने की कामना करने लगी । उसने अपने मन की बात अपनी प्रिय सखी रमा को बताई जो सेनापति कुंभभांड की पुत्री थी ।

रमा और चित्रलेखा की सहायता 

रमा चित्रकला में निपुण अप्सरा चित्रलेखा के अंश से उत्पन्न हुई थी इसलिए राजकुमारी उषा ने रमा को कहा कि वह अप्सरा चित्रलेखा को बुलाए । रमा की स्तुति करने पर अप्सरा चित्रलेखा वहां प्रकट हो गई । तब उषा और रमा ने चित्रलेखा की बहुत स्तुति की । चित्रलेखा बोली, मैं चित्र कला में निपुण हूं और साथ ही साथ संसार के सभी यशस्वी लोगों का ज्ञान भी रखती हूं । तुम्हारे सपने में जो पुरुष आया है उसके कुल, वंश गोत्र आदि का कुछ तुम्हें पता नहीं है । इसलिए मैं संसार के सभी यशस्वी व्यक्तियों का चित्र बनाऊंगी । उस चित्र के माध्यम से तुम पहचानना कि तुम्हारे सपने में कौन आया था ।



सात दिन के पश्चात जब चित्रलेखा राज कुमारी उषा के पास आई, तब उसके पास देवताओं, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, राक्षस आदि सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियों के चित्र थे । उन चित्रों को देखते हुए राज कुमारी उषा की नजर अनायास एक चित्र पर ठहर गई । वह बोली, यही कमल के समान सुंदर नेत्र वाला मनुष्य मेरे सपने में आया था, आप कृपया करके मुझे इनका परिचय बताइए।

तब अप्सरा चित्रलेखा बोली यह  राजकुमार अनिरुद्ध का चित्र है, जो प्रद्युम्न के पुत्र है और जगत पालक श्रीकृष्ण के पौत्र है । यह आर्यवर्त के पश्चिम में स्थित अपराज्य द्वारका नगरी में रहते हैं । तब राजकुमारी उषा बोली, "हे चित्रलेखा आप शीघ्र द्वारिका जाकर राजकुमार अनिरुद्ध को शोणितपुर में ले आइए ।" राजकुमारी उषा के बहुत अनुनए करने के पश्चात्‌ चित्रलेखा द्वारिका में अनिरुद्ध को लेने चली गई।


नारद जी का मार्गदर्शन 



द्वारका पहुंचकर चित्रलेखा यह विचार करने लगी कि वे राजकुमार अनिरुद्ध को शोणितपुर कैसे लेकर जाएगी । तभी सहसा उसे नारद जी के दर्शन हुए और उसने अपने आने की सारी कहानी नारद जी को सुनाई । नारद जी ने चित्रलेखा को  तामसी विद्या सिखाई जिसके प्रभाव से चित्रलेखा बिना किसी की नजर में आए अनिरुद्ध को ले जा सकती थी । तामसी विद्या की सहायता से चित्रलेखा अनिरुद्ध के पास पहुंच गई । 

चित्रलेखा ने देखा कि अनिरुद्ध गुमसुम सा बैठा हुआ हैै। उसने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया कि अनिरुद्ध भी उसी सपने के विषय में सोच रहा है, जो सपना उषा को आया था । तब चित्रलेखा ने पार्वती जी और उषा का संवाद अनिरुद्ध को बताया । चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को बताया कि वह उसे  शोणितपुर ले जाने के लिए आई है । चित्रलेखा की बात सुनकर अनिरुद्ध सहर्ष ही उसके साथ चलने को तैयार हो गया ।


अनिरुद्ध को लेकर चित्रलेखा तत्काल ही शोणितपुर पहुंच गई वहा कमलनयन वाले अनिरुद्ध को देखकर उषा बहुत प्रसन्न हुई । अनिरुद्ध ने भी उषा को सपने का वृत्तांत सुनाया । अपने मिलन को ईश्वर इच्छा जानकर अनिरुद्ध और उषा ने गंधर्व विवाह कर लिया । अनिरुद्ध को उषा ने अपने महल में ही छिपा लिया ।

अनिरुद्ध और बाणासुर का युद्ध 

यह बात बाणासुर के गुप्तचरों से छिपी ना रह सकी उन्होंने बाणासुर को यह सारी बात बताई । तब अनिरुद्ध को बंदी बनाने के उद्देश्य से बाणासुर ने अपनी सेना भेजी तो सारी सेना को अनिरुद्ध ने नष्ट कर दिया । तब बाणासुर स्वयं अनिरुद्ध से युद्ध करने के लिए आया और भयंकर युद्ध करने के पश्चात उसने नागपाश में अनिरुद्ध को बांध लिया और बंदी बना लिया ।

बाणासुर द्वारा नागपाश में बंधे जाने पर अनिरुद्ध ने भगवती देवी दुर्गा की स्तुति की जिसे आर्य स्तोत्र के नाम से जाना जाता है । यह स्तुति सुनने के उपरांत भगवती दुर्गा अनिरुद्ध के समक्ष प्रकट हो गई और उसे नागपाश से मुक्त कर के बोली, शीघ्र ही पालनहार श्री कृष्ण यहां आएंगे और आप को मुक्त करा कर ले जाएंगे ।

उधर द्वारिका में जब अनिरुद्ध नहीं मिले तो सबको बहुत चिंता हुई, राजा उग्रसेन ने चारों दिशाओं में अपने  दूत भेज दिए परंतु शाम तक सभी दूत  लौट आए और अनिरुद्ध का कुछ भी पता नहीं चला । उग्रसेन, श्री कृष्ण और समस्त द्वारका वासी बहुत चिंतित हो रहे थे तभी वीणा बजाते हुए नारद जी वहां आए । नारद जी को देखकर सभी का मन हर्ष से भर गया । नारद जी ने अनिरुद्ध के अपहरण का सारा वृत्तांत सुनाया । नारद जी ने भगवान श्रीकृष्ण को बताया कि कैसे भयंकर युद्ध के बाद बाणासुर ने अनिरुद्ध को नागपाश में बांध दिया है । अतः शीघ्र ही चलिए और बाणासुर को सेना सहित परास्त कीजिए और अनिरुद्ध को मुक्त कराईये ।

नारद जी से सारा वृत्तांत सुनकर श्री कृष्ण और बलराम बहुत क्रोधित हुए और राजा उग्रसेन से बाणासुर पर आक्रमण की आज्ञा मांगने लगे । नारद जी ने बताया कि शोणितपुर द्वारिका से 11000 योजन दूर है इसलिए आप अपने वाहन गरुड़ का स्मरण करें । भगवान श्री कृष्ण ने जब गरुड़ का स्मरण किया तो गरुड़ वहीं पर प्रकट हो गए । श्री कृष्ण, बलराम और प्रद्युम्न जी को लेकर शोणितपुर के लिए चल दिए ।



                                 ।। इति श्री ।। 






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